स्वामी विवेकानन्द के सामाजिक विचारों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
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एक ओर ब्रिटिश काल में रोमेश चंद्र दत्त और दादाभाई नौरोजी जैसे विचारक थे, जो भारत की गरीबी के लिए अंग्रेजों को जिम्मेदार मानते थे। लेकिन स्वामी विवेकानंद की सोच अलग थी। उनका मानना था कि अवरोध और एकाकीपन, एकता का अभाव, महिलाओं की खराब हालत और आम लोगों के हितों की अनदेखी ही भारत की दुर्दशा की वजह बनी हुई थी। महान दार्शनिक फ्रेडरिक हीगेल की भांति वह भी सिकंदर, चंगेज खां और नेपोलियन के व्यक्तित्व से प्रभावित थे। हालांकि हीगेल की तरह उन्होंने इतिहास को कभी दार्शनिक की तरह देखने का प्रयास नहीं किया। लेकिन व्यक्ति बनाम राज्य की हीगेल की अवधारणा का विवेकानंद पर असर दिखता है।
Explanation:
स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचारों के विश्लेषण के क्रम में यह जानना रोचक है कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत के वैश्विक हालात के मद्देनजर उन्होंने संसदीय लोकतंत्र की आलोचना की थी। हीगेल की भांति वह भी यह मानते थे कि प्रत्येक देश का कोई न कोई बुनियादी सिद्धांत जरूर होता है और भारत के संदर्भ में यह धर्म है। लेकिन उन्होंने सामाजिक सुधारों को किसी भी दूसरी चीज की तुलना में महत्वपूर्ण माना। इस मामले में वह लोकमान्य तिलक की तुलना में महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के ज्यादा नजदीक दिखते हैं। दरअसल, तिलक का मानना था कि साम्राज्यवादी ताकत के खिलाफ एकजुट लड़ाई के मद्देनजर यह बेहद जरूरी है कि सामाजिक सुधार के मुद्दे को आजादी के बाद उठाया जाए। दूसरी ओर, इस मामले में विवेकानंद का रुख धार्मिक पुनरुत्थानवाद और आधुनिक राष्ट्रवाद के पुरोधा का रहा। बंकिम चंद्र चटर्जी की तरह उन्होंने भारत को माता का दर्जा देते हुए इसकी अखंडता का समर्थन तो किया, लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में सीधे तौर पर हिस्सा नहीं लिया। हालांकि इस आधार पर उन पर पश्चिम का समर्थक होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। उनके विचारों पर कार्ल मार्क्स का भी कोई प्रभाव नहीं था। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि पहले विश्वयुद्ध तक भारत में मार्क्स को शायद ही कोई जानता हो।
अगर वर्ग संघर्ष की बात करें, तो व्यक्तिवाद और समाजवाद में सामंजस्य साधते हुए विवेकानंद ने इस अवधारणा को खारिज किया। दरअसल समाजवाद की उनकी अवधारणा वैज्ञानिक कम और मानवतावादी ज्यादा थी। वेदांत के व्यावहारिक पक्ष पर जोर देते हुए उन्होंने इसी जीवन में मोक्ष पाने की वकालत की। उनका राष्ट्रवाद बलिदान, भक्ति, पवित्रता और अनासक्ति पर आधारित था। उनका मानना था कि भारत के हालात पश्चिम से अलग हैं। पश्चिम भौतिकवाद और नवाचार पर जोर देता है, वहीं भारत में विचारों की निरंतरता पर भरोसा किया जाता है। उनका मानव मात्र की अच्छाई पर भरोसा था और यही उनकी स्वतंत्रता की अवधारणा का आधार था। विवेकानंद ने आत्मानुभूति और आत्मा की मुक्ति के जरिये स्वतंत्रता के उच्चतम आदर्श की प्राप्ति पर जोर दिया। लेकिन वह जाति आधारित अंधविश्वासों को इसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा मानते थे। इसके अलावा उन्होंने दूसरों से सीखने और यात्रा के जरिये अपनी सोच का विस्तार करने की भी बात की। गोखले ने भी एक बार महात्मा गांधी को आम आदमी की तरह भ्रमण करने और जमीनी हकीकत का निजी अनुभव लेने की सलाह दी थी। उन्होंने जाति पर आधारित व्यवस्था के बजाय एक सौहार्दपूर्ण समाज पर बल दिया। गरीबों की सेवा को सबसे बड़ी पूजा मानते हुए उन्होंने इसे वर्तमान के सभी संघर्षों का समाधान माना।
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