स्वापः इति शब्दस्य समानार्थकं गद्यांशात् चित्वा लिखत।
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।।2.60।।यथार्थ ज्ञानरूप बुद्धिकी स्थिरता चाहनेवाले पुरुषोंको पहले इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लेना चाहिये क्योंकि उनको वशमें न करनेसे दोष बतलाते हैं
हे कौन्तेय जिससे की प्रयत्न करनेवाले विचारशील बुद्धिमान् पुरुषकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उस विषयाभिमुख हुए पुरुषको क्षुब्ध कर देती हैं व्याकुल कर देती हैं और व्याकुल करके ( उस ) केवल प्रकाशको ही देखनेवाले विद्वान्के विवेकविज्ञानयुक्त मनको ( भी ) बलात्कारसे विचलित कर देती हैं।
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