सभता
हड़प्पा
व्यवस्था,
समाज, और धर्म
Answers
समाज
सिंध के लोगों के सामाजिक जीवन का विवेचन निम्न है-
1 . समाज की रचना - सिंध घाटी में प्राप्त उपकरणों और भानावशेषों से ऐसा आभास होता है कि यहाँ मातृ- प्रधान समाज था और यह चार भागों में विभक्त था-
( अ ) विद्वान - जिसमें पुरोहित , धर्मगरु , ज्योतिषी , वैद्य थे । ( ब ) योका और सैनिक - जो रक्षा का काम करते थे और लडते थे । ( स ) व्यवसायी - जिनमें व्यापारी और कृषक वर्ग था । ( द ) श्रमिक लोग - भृत्य आदि ।
2 . भोजन - सिंधु वासियों के आहार में प्रमख गेहूँ और जौ थे । खजूर की गुठलियों और अन्य अवशेषों से स्पष्ट होता है कि फलों तरकारियों का भी प्रयोग होता था और दूध के विभिन्न उपयोगों से वे परिचित थे । वे मांसाहारी थे । गाय , सूअर , भेड़ , मुगे , मछली व अंडे आदि का उपयोग करते थे । खुदाई में रोटी बनाने के साँचे भी मिले हैं , जिनसे उनके मिष्ठान प्रयोग की पुष्टि होती है ।
3 . वस्त्र एवं आभूषण - सूती तथा ऊनी वस्त्रों का प्रयोग होता था । सादी वेशभूषा थीं । पुरुष लम्बी शाल या दुपट्टा दाएँ कंधों के ऊपर फेंककर औढ़ते थे । स्त्रियाँ सिर पर एक प्रकार का वस्त्र पहनती थीं . जो सिर के पीछे की ओर पंखे की भाँति उठा रहता था । पुरुष छोटी दाढ़ियाँ और मूंछ रखते थे । बालों को काटकर छोटा कर दिया जाता था या मोड़कर उनका जूडा बाँधा जाता था । स्त्रियाँ अपनी चोटी को कई वृत्तों में लपेटती थीं और कभी - कभी वे बालों का जूड़ा बनाकर पीछे फीते से बांध लेती थीं । धनवान स्त्री - पुरुष केशों को बाँधने के लिए सुनहरे फीतों का उपयोग करते थे । स्त्री - पुरुष आभूषणों का प्रयोग रुचिपूर्वक करते थे । हार , अंगूठियाँ , कड़े , कुंडल और बालियाँ स्त्री - पुरुष दोनों ही पहनते थे । स्त्रियों के आभूषणों में कई लड़ों वाली करधनी , कान के काँटे , कर्णफूल तथा पग - पायल मुख्य थे । कान के लटकनों तथा नाक के आभूषणों का अभाव था । आभूषण सोने - चाँदी , हाथीदाँत तथा रत्नों के होते थे । निर्धन और साधारण लोग अस्थियाँ , घोंघों , सीपों , ताँबे , काँसे तथा पक्की मिट्टी के आभूषण पहनते थे ।
धार्मिक
हड़प्पा में पकी मिट्टी की स्त्री मूर्तिकाएं भारी संख्या में मिली हैं। एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। विद्वानों के मत में यह पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और इसका निकट संबंध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा होगा। इसलिए मालूम होता है कि यहां के लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस् की। लेकिन प्राचीन मिस्र की तरह यहां का समाज भी मातृ प्रधान था कि नहीं यह कहना मुश्किल है। कुछ वैदिक सूत्रो में पृथ्वी माता की स्तुति है,
धोलावीरा के दुर्ग में एक कुआँ मिला है इसमें नीचे की तरफ जाती सीढ़ियाँ है और उसमें एक खिड़की थी जहा दीपक जलाने के सबूत मिलते है। उस कुएँ में सरस्वती नदी का पानी आता था, तो शायद सिंधु घाटी के लोग उस कुएँ के जरिये सरस्वती की पूजा करते थे।
सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों में एक सील पाया जाता है जिसमें एक योगी का चित्र है 3 या 4 मुख वाला, कई विद्वान मानते है कि यह योगी शिव है। मेवाड़ जो कभी सिंधु घाटी सभ्यता की सीमा में था वहाँ आज भी 4 मुख वाले शिव के अवतार एकलिंगनाथ जी की पूजा होती है। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग अपने शवों को जलाया करते थे, मोहन जोदड़ो और हड़प्पा जैसे नगरों की आबादी करीब 50 हज़ार थी पर फिर भी वहाँ से केवल 100 के आसपास ही कब्रे मिली है जो इस बात की और इशारा करता है वे शव जलाते थे। लोथल, कालीबंगा आदि जगहों पर हवन कुंण्ड मिले है जो की उनके वैदिक होने का प्रमाण है। यहाँ स्वास्तिक के चित्र भी मिले है।
कुछ विद्वान मानते है कि हिंदू धर्म द्रविडो का मूल धर्म था और शिव द्रविडो के देवता थे जिन्हें आर्यों ने अपना लिया। कुछ जैन और बौद्ध विद्वान यह भी मानते है कि सिंधु घाटी सभ्यता जैन या बौद्ध धर्म के थे, पर मुख्यधारा के इतिहासकारों ने यह बात नकार दी और इसके अधिक प्रमाण भी नहीं है।
प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में पुरातत्वविदों को कई मंदिरों के अवशेष मिले है पर सिंंधु घाटी में आज तक कोई मंदिर नहीं मिला, मार्शल आदि कई इतिहासकार मानते है कि सिंधु घाटी के लोग अपने घरो में, खेतो में या नदी किनारे पूजा किया करते थे, पर अभी तक केवल बृहत्स्नानागार या विशाल स्नानघर ही एक ऐसा स्मारक है जिसे पूजास्थल माना गया है। जैसे आज हिंदू गंगा में नहाने जाते है वैसे ही सैन्धव लोग यहाँ नहाकर पवित्र हुआ करते थे।