Sanvidhan ki uddeshika ka Hamare Jivan mein kya mahatva hai sanvidhan Sabha ka gathan kis Seema Tak loktantrik tha
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संविधान सभा की पहली बैठक की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर भारत के महामहिम राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा का भाषण संसद भवन, नई दिल्ली सोमवार, 9 दिसंबर, 1996/18 अग्रहायण, 1918 (शक)
भारत की संविधान सभा की प्रथम बैठक की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित इस समारोह में भाग लेते हुए मुळो अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
मैं राष्ट्र की ओर से संविधान सभा के सभी सदस्यों को श्रद्धाभाव व्यक्त करता हूं। उनके सत्यनिष्ठ प्रयासों ने भारत को उन्नति एवं विकास के लिए आधारभूत वैधानिक तथा नैतिक ढांचा प्रदान किया।
मेरा यह भी सौभाग्य है कि मैं संविधान सभा के कुछ ऐसे सदस्यों का भी अभिनन्दन कर रहा हूं, जो आज यहां हमारे बीच विद्यमान हैं।
स्वाधीनता संघर्ष के लिए हमारे लम्बे संघर्ष के इतिहास में 9 अगस्त की भांति ही 9 दिसम्बर भी बहुत महत्वपूर्ण है। निश्चय ही, संविधान सभा के गठन की मांग स्वतंत्रता तथा स्वाधीनता के हमारे व्यापक उद्देश्य से वास्तविक रूप से जुड़ी थी। वर्ष 1929 में पूर्ण स्वराज के लिए पारित संकल्प ने सर्वव्यापी राष्ट्रवादी उत्साह उत्पन्न किया था, और और लोगों को स्वतंत्रता आन्दोलन में नये जोश के साथ भाग लेने के लिए उत्प्रेरित किया था। अपने भाग्य का स्वयं निर्णायक बनने की भारत की जनता की इस गहरी इच्छा की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति में एक ऐसे लोकतांत्रिक संविधान की संरचना की भावना निहित थी, जो स्वाधीन भारत का स्वयं भारत की जनता द्वारा ही शासन किए जाने के लिए ढांचा प्रदान करता। स्पष्ट है कि ऐसा संविधान भारत की जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा ही तैयार किया जा सकता था। इसी अकाट्य तर्क के आधार पर ही पंडित जी ने संविधान सभा के गठन की आवाज उठाई थी। वर्ष 1934 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया, जो बाद में स्वाधीन भारत के लिये बनी राष्ट्रवादी कार्यसूची का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया। महात्मा गांधी ने स्वयं इस प्रस्ताव की पुष्टि की थी। "हरिजन" पत्रिका में 25 नवम्बर, 1939 को उन्होंने कहा था: [मैं उद्धृत करता हूं]
"पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मुळो अन्य बातों के अलावा संविधान सभा के गठन से उत्पन्न प्रभावों का अध्ययन करने के लिए विवश किया है। जब उन्होंने कांग्रेस के संकल्पों में पहली बार इसे पेश किया, तो मैने इस विश्वास के साथ अपनी संतुष्टि कर ली कि उन्हें लोकतंत्र की तकनीकी बारीकियों के बारे में बेहतर जानकारी है। परन्तु मैं पूर्णत: संशय-मुक्त नहीं था। तथापि, वास्तविक तथ्यों ने मेरे सभी संशयों को दूर कर दिया है। और शायद इसी कारण मुळो इस प्रस्ताव के प्रति जवाहरलाल से भी अधिक समुत्साही बना दिया है।"
संविधान सभा के प्रस्ताव को साकार होने में सात वर्ष लग गये। यह ऐसा समय था, जब न केवल भारत में, अपितु समस्त विश्व में कुछ नाटकीय परिवर्तन हुए। 1942 में ऐतिहासिक "भारत छोड़ो आन्दोलन" भारत में अपने चरमोत्कर्ष पर था। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में, दूसरे विश्व युद्ध के बाद भौगोलिक एवं राजनैतिक स्थिति में भी मूलभूत परिवर्तन हो रहे थे। जब हमारे शांतिपूर्ण तथा अहिंसात्मक संघर्ष को सफलता मिली तो विश्व परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। इस संघर्ष का नेतृत्व ऐसे सच्चरित्र पुरूषों एवं महिलाओं तथा नेताओं द्वारा किया गया था, जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के कष्टों व मुसीबतों का सामना किया, तथा भारी कष्ट और परेशानियां उठाईं थीं।
संविधान सभा में भाग लेने के लिए जो लोग निर्वाचित हुए थे, वे हमारे ही प्रिय नेता थे, जो जनसाधारण से जुड़े हुए प्रबुद्ध और विद्धान व्यक्ति थे, और देश के सांस्कृतिक मूल्यों से अनुप्रााणित थे। उनका व्यापक दृष्टिकोण था, जिसका संबंध सम्पूर्ण मानवता से था, और जिसका उद्देश्य हमारी संस्कृति के महान आध्यात्मिक मूल्यों का अन्य परम्पराओं के आधुनिक गतिशील दृष्टिकोण के साथ समन्वय करना था।
हमारे चारित्रिक मूल्यों तथा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्राप्त हुए उनके अनुभवों ने हमारे लोगों को स्वतंत्रता, समता, न्याय, मानव गरिमा तथा लोकतंत्र के प्रति सम्मान के आदर्शों के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहने की प्रेरणा दी। स्वतंत्रता संघर्ष के ये सिद्धांत, ये लक्ष्य और ये मूल्य ही हमारे संविधान का मूल तत्व और प्राण हैं, तथा संविधान की प्रस्तावना में इनका मुख्य रूप से उल्लेख किया गया है।
इससे पूर्व, आजादी मिलने से पहले के दशकों में भी हमारी जनता स्वतंत्र भारत के बारे में इन नेताओं की परिकल्पना पर विचार करती आ रही थी। पंडित मोतीलाल नेहरू ने भारत का प्रारूप तैयार किया था। मार्च, 1931 में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन में महात्मा गांधी द्वारा पेश किया गया वह प्रसिद्ध संकल्प स्वीकार किया गया था जिसमें मूल अधिकारों संबंधी हमारा घोषण पत्र शामिल था। संविधान सभा का पहला सत्र लम्बे और कठिन संघर्ष एवम् एक प्रभुसत्ता सम्पन्न और लोकतांत्रिक राष्ट्र के बारे में हमारी सुस्पष्ट परिकल्पना के साकार होने की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में सन् 1946 में हुआ था। जब पंडित जी ने कहा था "हमने एक राष्ट्र के स्वप्न और आकंाक्षा को लिखित और मुद्रित रूप देने का महान साहसिक कार्य शुरू किया है।"
संविधान सभा के सदस्यों के मन में एक ऐसा संविधान तैयार करने के प्रति समर्पण की भावना थी, जो भारत की अनेकतावादी और सारभूत एकात्मकता तथा एकता और अखण्डता को बनाये रखेगा। हमारा संविधान यह सुनिश्चित करता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र रहेगा। विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के लोगों को, जो हमारे अनेकत्ववादी जीवन्त समाज के अंग हैं, अपने-अपने धर्मों का अनुसरण करने की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है । मेरा यह भी कहना है कि हमारे संविधान के अंतर्गत ये अधिकार उन लोागें को भी प्राप्त है, जो भारत के नागरिक नहीं हैं।
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