सत्य का दिखने और ojal होने से आप क्या समझते हैं
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सत्य के दिखने और ओझल होने से मैं यह समझती हूं कि आज सत्य का कोई एक स्थिर रुप, आकार, पहचान नहीं है, जिससे सत्य को स्थायी मान लिया जाए। उसका रुप वस्तु, स्थिति, घटनाओं और पात्रों के अनुसार बदलता रहता है। इसलिए सत्य की पहचान और उसकी पकड़ करना एक दुष्कर कार्य है।
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