श्रीचक्रधर स्वामीचे गुण
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कहानी हैँ, 800 वर्ष पुर्व महानुभाव पंथ के संस्थापक सर्वज्ञ श्रीचक्रधर स्वामी की, जिन्होने कलियुग मेँ अवतार लेकर जिवोँके उध्दार करने का व्यसन स्वीकारा ।
श्री चक्रधर स्वामी 12 वी सदी में हुए परमेश्वर अवतार हैं.
महानुभाव पंथ की स्थापना सन 1267 में भगवान श्री चक्रधर स्वामी ने ही की थी।
हरिपाल का जन्म गुजरात के भड़ोच में हुआ था। इनके पिता का नाम विशालदेव और माता का नाम मालिनी देवी था। विशालदेव भड़ोच (गुजरात) राजा के यहाँ प्रधान थे.
हरिपाल का विवाह कमलाईसा से हुआ था. उनका एक पुत्र था जिसका नाम महिपाल था।
जब हरिपाल बडेँ हुयेँ तो दो बार सिंघन राज्य के साथ युद्ध कर विजयी हुए। इस युद्ध के पश्चात शक 1143 वृषभ संवत्सर भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, शुक्रवार (ता. 20-08-1221) को रोगवश उनकी 25 वर्ष की आयु मेँ हरिपाल की मृत्यु हो गई। शोक मग्न स्थिती में शव चिता पर दाह संस्कार के लिए रखा। उसी समय द्वारावतीकार भगवान श्री चक्रपाणि ने कामख्या नामक हठयोगिनी के दुराग्रह से देह त्याग करके दिनांक 20.08.1221 को हरिपाल देव के मृत शरीर में प्रवेश किया। हरिपाल को जीवित देख, सबको आश्चर्य और प्रसन्नता हुई।
मरने से पहले हरिपाल को जुए की लत थी। पर परमेश्वर ने जब हरिपाल के देह मेँ प्रवेश किया तो किसि को भनक तक नहीँ लगने दी की हरिपाल तो मर चुका हैँ और उसके देह मे परमेश्वर ने जगह ले ली है । हरिपाल अब भी जुआ खेलने लगे, जुए मेँ जानबुझ कर वह अपनी सब सम्पत्ति दावं पर लगा चूके थे । जब उसके पास कुछ नहीं बचा तब, एक दिन वह अपनी पत्नी को गहने मांगने गये पर उन्होँने नहीँ दिये इसी कारण को सामने करते हुये और जिवोँ के उध्दार के उद्देश के लिये, रामटेक जाना है, कह कर घर से निकल गये। पिता ने एक घोडा और कुछ सहायक हरिपाल देव के साथ लगा दिए थे। परन्तु , हरिपाल देव का मन तो विरक्त हो गया गया था। मार्ग में एक स्थान पर जब वे विश्राम के लिए रुके थे तब, हरिपाल एकाएक उन सब को रात में सोते हुए छोड़ कर अकेले ही निकल गए। घूमते-घूमते हरिपाल देव रिध्दपुर में पहुंचे। यहाँ उनकी मुलाक़ात भगवान श्रीगोविन्द प्रभु से हुयी । श्रीगोविन्द प्रभु से ज्ञान शक्ति स्वीकार की। श्रीगोविन्द प्रभु ने उनका नाम चक्रधर रखा। उस समय से हरिपाल देव श्री चक्रधर स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुए। अब वे 'चक्रधर स्वामी' हो गए थे। उन्होंने जिवोँके उध्दार करने का व्यसन स्वीकारा लिया। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किया. अन्धविश्वास के प्रति जन चेतना जाग्रत की। श्रीचक्रधर स्वामी ने हिन्दुओं की जाति-व्यवस्था और अर्थहीन परम्पराओं का कड़ा विरोध किया था। उन्होने स्त्री-पुरुष की भक्ति समानता का प्रचार किया। धीरे धीरे लोग उनके साथ जुड़ते गए। उनके कई शिष्य हुए। उन में रामदेव दादोस प्रमुख है। उनके अन्य शिष्य नागदेव, बाईसा, महादाईसा, उमाईसा, आउसा आदि हैं,
मनु ने अपनी मनुस्मृति में प्रतिपादित किया था ''न शुद्राय मतिं दध्यात, नोचिछष्टं, न हविष्कृतम - 4-80 ''न शुद्रे पातकं किंचित 10-126 मनु. स्मृति।
शुद्र को किसी प्रकार की कोई राय नहीं देनी चाहिए। जूठा तथा हवन से बचा हुआ अन्न नहीं देना चाहिए। उसे पाप, पुण्य नहीं लगता। वह सद संस्कार के योग्य नहीं है। किसी प्रकार के धार्मिक कार्य का अधिकार चारों वर्णो की स्त्रियों को भी नहीं है। हेमाद्री पणिडत ने ग्रंथ 'चतुर्वग चिन्तामणि' में प्रतिपादित किया था कि प्रत्येक दिन व्रत, उपवास करने चाहिए। देवता विशिष्ट पकवानों से संतुष्ट होते हैं और ब्राह्राणों को भोजन करवाना चाहिए। उस समय के ब्राह्राणों में पाण्डित्य होते हुए भी ज्ञान नहीं था। परमेश्वर की उपासना छोड़कर अनेक देवी, देवताओं की उपासना, प्रशंसा इतनी बढ़ाई हुई थी कि उन्हें से ही मोक्ष की प्राप्त होती है, यही उनकी धारणा कर ली थी, किन्तु देवताओं के उपासना से देवताओं के अनित्य फल प्राप्त होते हैं। मोक्ष फल प्राप्त नहीं होता। जब भी धर्म की ग्लानि होती है, तब परमेश्वर धर्म की स्थापना हेतु पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। इसी उददेश्य से श्री चक्रधर स्वामी ने भड़ोच (गुजरात) में अवतार धारण किया।