शिशिर ऋतु के समय धनवान और गरीब लोगों के जीवन का तुर्णात्मक वर्णन किजीए
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इस ऋतु में प्रकृति पर बुढ़ापा छा जाता है। वृक्षों के पत्ते झड़ने लगते हैं। चारों ओर कुहरा छाया रहता है। इस प्रकार ये ऋतुएं जीवन रूपी फलक के भिन्न-भिन्न दृश्य हैं, जो जीवन में रोचकता, सरसता और पूर्णता लाती हैं।
शिशिर ऋतु में फूलों के पौधे फूलों से लद जाते हैं। बाज़ार में नर्सरी से बिकने वाले पुष्पयुक्त पौधों की भरमार दिखाई देने लगती है।
सब्जियों के पौधे तथा लताएँ अपने उत्पादन की चरम स्थिति में इस ऋतु में ही पहुँच जाती है। बाज़ार सब्जियों से पट-सा जाता है। भोजन अत्यन्त सुस्वादु लगने लगता है और रसना उसका रस लेते हुए अघाती तक नहीं है। जठराग्नि इतनी तेज हो जाती है कि कुछ भी और कितना भी खाओ, सब पच जाता है।
यह ऋतु विसर्गकाल अर्थात् दक्षिणायन का अंतकाल कहलाती है। इस काल में चन्द्रमा की शक्ति सूर्य की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है। इसलिए इस ऋतु में औषधियाँ, वृक्ष, पृथ्वी की पौष्टिकता में भरपूर वृद्धि होती है व जीव जंतु भी पुष्ट होते हैं। इस ऋतु में शरीर में कफ का संचय होता है तथा पित्तदोष का नाश होता है।
शीत ऋतु में स्वाभाविक रूप से जठराग्नि तीव्र रहती है, अतः पाचन शक्ति प्रबल रहती है। ऐसा इसलिए होता है कि हमारे शरीर की त्वचा पर ठंडी हवा और हवा और ठंडे वातावरण का प्रभाव बारंबार पड़ते रहने से शरीर के अंदर की उष्णता बाहर नहीं निकल पाती और अंदर ही अंदर इकट्ठी होकर जठराग्नि को प्रबल करती है। अतः इस समय लिया गया पौष्टिक और बलवर्धक आहार वर्ष भर शरीर को तेज, बल और पुष्टि प्रदान करता है।