Hindi, asked by arun7034, 9 months ago

sidhraj kiski rachna hi​

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Answered by molik74
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Maithili Sharan Gupt 
Answered by Lostinmind
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Answer:

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

अपने मध्यकालीन वीरों की एक झलक पाने के लिए पाठक ‘‘सिद्धराज’’ पढ़ेंगे तो सम्भवत: उन्हें निराश न होना पड़ेगा।

कथाकार अपने पाठकों को उत्सुक बनाये रखता है। परन्तु

‘आ गया प्रसंग वह भाग्य या अभाग्य से’।

जैसी पंक्तियाँ लिखना आरंभ में ही आगे का आभास दे देना है। लेखक पाठकों की उस उत्सुकता का अधिकारी नहीं। उसके अनुरूप प्रतिदान कलाकार ही दे सकते हैं। लेखक को तो यही संतोष का विषय है कि उसके पाठक उत्सुक नहीं, आश्वस्त ही रहें।

पुस्तक में जो घटनायें हैं, वे ऐतिहासिक हैं। परन्तु उनका क्रम संदिग्ध है। इसलिए लेखक ने उसे अपनी सुविधा के अनुसार बना लिया है। जो अंश काल्पनिक हैं, वे आनुषंगिक हैं और उनसे ऐतिहासिकता में कोई बाधा नहीं आती।

पुस्तक की सामग्री के लिए लेखक मान्यवर महामहोपाध्याय श्री गौरीशंकर हीराचन्दजी ओझा के निकट विशेष रूप से ऋणी हैं। श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने सिद्धराज-संबंधी अपने तीन उपन्यास भेजकर लेखक को सहायता दी है। गुजराती न जानते हुए भी, उन्हें पढ़कर लेखक ने जो आह्लाद पाया है, उसी को वह अपने इस काम में लगने का बड़ा लाभ मानता है। सचमुच श्लाघनीय हैं वे रोमांस। लेखक तो ‘रोमांस’ न कहकर ‘रोमांच’ कहेगा !

रानकदे के संबंध की विशेष जानकारी लेखक को अपने दूसरे गुजराती बन्धु श्री एस.पी. शाग, आई.सी.एस. के अनुज श्री एच.पी. शाह एडवोकेट से प्राप्त हुई है।

श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य के अंग्रेजी ग्रंथ ‘मध्ययुगीन भारत’ के हिन्दी अनुवाद से भी लेखक ने लाभ उठाया है।

लेखक हृदय से सब सज्जनों का आभारी है।

सात आठ वर्ष पहले पुस्तक का आरम्भ हुआ था। किन्तु दो सर्ग के अनन्तर कुछ कठिनाइयों के कारण काम रूक गया। जिन बन्धुओं के आग्रह से आज यह पूरा हो सका है, उनसे तो यही आशा है कि लेखक उनके प्रति नहीं, वे ही लेखक के प्रति कृतज्ञ हों।

चिरगाँव

गुरुपूर्णिमा- ’93 वि.

श्री गणेशाय नम:

सिद्धराज

मंङग्लाचरण

आप अवतीर्ण हुए दु:ख देख जन के,

भ्रातृ-हेतु राज्य छोड़कर, वासी बने वन के,

राक्षसों को मार भार मेटा धरा-धाम का,

बढ़े धर्म, दया-दान युद्ध-वीर राम का।

प्रथम सर्ग

सन्ध्या हो रही है नील नभ में, शरद के

शुभ्र घन तुल्य, हरे वन में, शिविर के

स्वर्ण के कलश पर अस्तंगत भानु का

अरुण प्रकाश पड़ झलक रहा है यो,

झलक रहा हो भरा भीतर का वर्ण ज्यों।

फहर रहा है केतु उस पर धीरे से,

वन के व्यजन राजमंगल-कलश का,

जिसमें न टूट पड़े कोई विघ्न-मक्षिका.

भंग करने को रस-रंग कभी उसका।

अश्र्विनी के ऊपर सुभव्य भाव भरणी

कृत्तिका-सी, वामियों के ऊपर चढ़ी हुई

वामाएँ अनेक, दीर्घ शूल लिए दाहिने

हाथ में, लगाम धरे बाँयें हाथ में, कसे

क्षीण कटि जटिल विचित्र कटि-बन्धों से,

पीठ पर बाल छोड़े ढ़ाल के-से ढंग से,

हैम सिरस्त्राण बाँधे मोतियों की कलगी

जिन पर खेलती है स्वच्छ गुच्छरूपिणी,

कंचुकी, कवच सब एक ही-से पहने,

गहने हैं- वेंदी, कर्णफूल, हार, किंकणी,

कंकण करों में और नुपूर पदों में हैं

शौर्य-वीर-साहस का प्रतिमा सजीव-सी,

मन्दिर-समान उस सुन्दर शिविर की

करती हैं मण्डल बनाकर परिक्रमा !

स्वप्न नहीं, सत्य ! किन्तु गत वे दिवस हैं;

बात यह विक्रमीय द्वादस शताब्दियों की।

वामा-व्यूह आज हमें जान पड़े सपना,

देश था स्वतन्त्र तब, राजा आप अपना।

जननी प्रसिद्ध सिद्धराज जयसिंह की,

मीलनदे नाम हुई और काम शुभ जिसका,

सोमनाथ जाती हुई मार्ग में है ठहरी।

बाहर अपूर्व राज वैभव-विकास है,

गज-रज-अश्वमयी सेना बहु साथ में।

भीतर परन्तु उदासीनता की मूर्ति है

सोलंकी-शशांक स्वर्गवासी कर्णदेव की

वर्षीय-सी विधवा, तपस्विनी-सी शोभना,

बैठी अकेली, खड़ी आड़ में हैं दासियाँ ।

शान्त-कान्त-रूप, मुख प्रौढ़ पक्व बुद्धि से

दीप्त यथा दीप, सौम्य नासा शिखा-रूपिणी।

सन्ध्योपासना में प्रभु और निज पति का

करती है ध्यान सदा वह शरणागत।

गूँज उठती है गज-घंट-ध्वनि बीच में

बाहर से आकर, परन्तु नहीं टूटता

ध्यान जा लगा है पतिदेव में जो उसका।

नीचे बैठे ऊपर को देख वह बोली यों-

‘‘छोड़ा तीन वर्ष का था, जिसे तुमने

और हतभागिनी को छोड़ा यहाँ जिसके

कारण, तुम्हारा जयसिंह वहीं अधुना

हो गया युवक, इस योग्य-निज राज्य जो

आप ही सँभाले और पाले प्रज्ञा प्रीति से

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