Math, asked by sanyam22122017, 6 months ago

Someone please explain me the EK PHOOL KI CHAH poem class 9
I will mark ur answer as the brainliest
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my exam is tomorrow

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Answered by srishtirana1737
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प्रस्तुत पाठ गुप्त जी की कविता ‘एक फूल की चाह' का एक छोटा सा भाग है। यह पूरी कविता छुआछूत की समस्या पर केंद्रित है। कवि कहता है कि एक बडे़ स्तर पर फैलने वाली बीमारी बहुत भयानक रूप से फैली हुई थी। उस महामारी ने लोगों के मन में भयानक डर बैठा दिया था। इस कविता का मुख्य पात्र अपनी बेटी जिसका नाम सुखिया था, उसको बार-बार बाहर जाने से रोकता था। लेकिन सुखिया उसकी एक न मानती थी और खेलने के लिए बाहर चली जाती थी। जब भी वह अपनी बेटी को बाहर जाते हुए देखता था तो उसका हृदय डर के मारे काँप उठता था। वह यही सोचता रहता था कि किसी तरह उसकी बेटी उस महामारी के प्रकोप से बच जाए। एक दिन सुखिया के पिता ने पाया कि सुखिया का शरीर बुखार से तप रहा था। उस बच्ची ने अपने पिता से कहा कि वह तो बस देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहती है ताकि वह ठीक हो जाए। सुखिया के शरीर का अंग-अंग कमजोर हो चूका था। सुखिया का पिता सुखिया की चिंता में इतना डूबा रहता था कि उसे किसी बात का होश ही नहीं रहता था। जो बच्ची कभी भी एक जगह शांति से नहीं बैठती थी, वही आज इस तरह न टूटने वाली शांति धारण किए चुपचाप पड़ी हुई थी। कवि मंदिर का वर्णन करता हुआ कहता है कि पहाड़ की चोटी के ऊपर एक विशाल मंदिर था। उसके विशाल आँगन में कमल के फूल सूर्य की किरणों में इस तरह शोभा दे रहे थे जिस तरह सूर्य की किरणों में सोने के घड़े चमकते हैं। मंदिर का पूरा आँगन धूप और दीपकों की खुशबू से महक रहा था। मंदिर के अंदर और बाहर  माहौल ऐसा लग रहा था जैसे वहाँ कोई उत्सव हो। जब सुखिया का पिता मंदिर गया तो वहाँ मंदिर में भक्तों के झुंड मधुर आवाज़ में एक सुर में भक्ति के साथ देवी माँ की आराधना कर रहे थे। सुखिया के पिता के मुँह से भी देवी माँ की स्तुति निकल गई। पुजारी ने सुखिया के पिता के हाथों से दीप और फूल लिए और देवी की प्रतिमा को अर्पित कर दिया। फिर जब पुजारी ने उसे दोनों हाथों से प्रसाद भरकर दिया तो एक पल को वह ठिठक सा गया। क्योंकि सुखिया का पिता छोटी जाति का था और छोटी जाति के लोगों को मंदिर में आने नहीं दिया जाता था। सुखिया का पिता अपनी कल्पना में ही अपनी बेटी को देवी माँ का प्रसाद दे रहा था। सुखिया का पिता प्रसाद ले कर मंदिर के द्वार तक भी नहीं पहुँच पाया था कि अचानक किसी ने पीछे से आवाज लगाई, “अरे यह अछूत मंदिर के भीतर कैसे आ गया? इसे पकड़ो कही यह भाग न जाए।' वे कह रहे थे कि सुखिया के पिता ने मंदिर में घुसकर बड़ा भारी अनर्थ कर दिया है और लम्बे समय से बनी मंदिर की पवित्रता को अशुद्ध कर दिया है। इस पर सुखिया के पिता ने कहा कि जब माता ने ही सभी मनुष्यों को बनाया है तो उसके मंदिर में आने से मंदिर अशुद्ध कैसे हो सकता है। यदि वे लोग उसकी अशुद्धता को माता की महिमा से भी ऊँचा मानते हैं तो वे माता के ही सामने माता को नीचा दिखा रहे हैं। लेकिन उसकी बातों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ। लोगों ने उसे घेर लिया और उसपर घूँसों और लातों की बरसात करके उसे नीचे गिरा दिया। लोग उसे न्यायलय ले गये। वहाँ उसे सात दिन जेल की सजा सुनाई गई। जेल के वे सात दिन सुखिया के पिता को ऐसे लगे थे जैसे कई सदियाँ बीत गईं हों। उसकी आँखें बिना रुके  बरसने के बाद भी बिलकुल नहीं सूखी थीं। जब सुखिया का पिता जेल से छूटा तो उसके पैर उसके घर की ओर नहीं उठ रहे थे। सुखिया के पिता को घर पहुँचने पर जब सुखिया कहीं नहीं मिली तब उसे सुखिया की मौत का पता चला। वह अपनी बच्ची को देखने के लिए सीधा दौड़ता हुआ शमशान पहुँचा जहाँ उसके रिश्तेदारों ने पहले ही उसकी बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया था। अपनी बेटी की बुझी हुई चिता देखकर उसका कलेजा जल उठा। उसकी सुंदर फूल सी कोमल बच्ची अब राख  के ढ़ेर में बदल चुकी थी।

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