speech on कर्म ही धर्म है
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जब तक हम प्रयास नहीं करेंगे, तब तक हम अपने सामने रखे भोजन को भी नहीं खा सकते हैं इसलिये जीवन कर्म के बिना अधूरा है। यह जीवन केवल तभी उपयोगी होता है जब तक हम सभी कार्य करते हैं। कार्य करना जीवन का मुख्य उद्देश्य है। आलस्य और सुस्तता जीवन के लिये अभिशाप के समान है। कर्म के बिना जीवन का कोई व्यक्तित्व नहीं है।
व्यक्ति की सफलता के लिए कर्मठ होना आवश्यक है। उसे कर्म में ही विश्वास करना चाहिए। जिस व्यक्ति में आत्म-विश्वास है, वह व्यक्ति जीवन में कभी असफल नहीं हो सकता है, हाँ जो व्यक्ति हर बात के लिए मुँह जोहता है, उसे अनेक बार निराशा का सामना करना पड़ता है।
अकर्मण्य व्यक्ति ही भाग्य के भरोसे बैठता है। कर्मवीर व्यक्ति तो बाधाओं की उपेक्षा करते हुए अपने बाहुबल पर विश्वास रखते हैं।केवल आलसी लोग ही हमेशा दैव-दैव पुकारा करते है और कर्मशील व्यक्ति ’दैव-दैव आलसी पुकारा’ कहकर उनका उपहास किया करते हैं।एक समय ऐसा भी आया जब इस विषैले मंत्र ने देश में अकर्मण्यता कर दिया। आलसी व्यक्ति परिवार, समाज और देश के लिए कलंक होता है।जीवन में सफलता केवल पुरूषार्थ से ही पाई जा सकती है। अकर्मण्य व्यक्ति सदा दूसरों का मुँह ताका करता है। वह पराधीन हो जाता है। स्वावलंबी व्यक्ति अपने भरोसे रहता है।विश्व का इतिहास ऐसे महापुरूषों से भरा पड़ा है जिन्होंने कर्म में रत रहकर सफलता की उच्च सीमा को जा छू लिया। जो पुरूष उद्यमी एवं स्वावलंबी होते हैं, वे निश्चय ही सफल होते हैं। वास्तव में यह व्यक्ति अपने में सारगर्भित है। आलसी मनुष्य ही दैव या प्रारब्ध का सहारा लेते हैं। कायर मनुष्य का जीवन इसलिए होता है कि वह निदिन्त एवं तिरस्कृत होता रहे। उससे समस्त समाज घृणा करता है।
रविन्द्रनाथ ठाकुर ने भी अपनी ’पुजारी, भजन, पूजन और साधन’ कविता में बताया है कि देवालय में बैठना ईश्वर की सच्ची उपासना नही है। इस कविता में कवि कहता है कि देवालय के द्वार बंद करके किसी कोने में बैठकर पूजा करना व्यर्थ है। देवता देवालय मे निवास नहीं करता। उसका वास तो कर्म भूमि में होता है। उसे किसान मजदूरों के मध्य ही पाया जा सकता है। वह स्वंय सृजन कर्म में बंधा है। पुजारी को भी फूलों की डाली एक ओर रखकर निर्माण कार्य में जुट जाना चाहिए। इसमंे चाहे उसके वस्त्र फट जाएँ अथवा वह धूल में सन जाए। उसे इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। जब पुजारी श्रमिकों के साथ पसीना बहाएगा तभी वह ईश्वर की सच्ची पूजा कर पाएगा।
कवि का आशय है कि देवालय में बैठकर ईश्वर की सच्ची उपासना नहीं की जा सकती। कर्म करके ही ईश्वर की उपासना हो सकती है, अतः किसान-मजदूरो के पसीने के साथ पसीना बहाना चाहिए। इसी से ईश्वर प्रसन्न होता है।