Subhas chandra bos jivan parichay
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Here is your answer. ..
सुभाष चंद्र बोस, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रमुख नेताओं में से एक थे। सुभाष चंद्र बोस नेताजी के नाम से लोकप्रिय है। उनका जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक नामक शहर में जानकीनाथ बोस और प्रभावती देवी के घर में हुआ था। उनके पिता एक प्रसिद्ध वकील थे और उनकी माँ एक धार्मिक महिला थी। चौदह भाईयो में उनका 9 वाँ स्थान था।
वह अपने माता-पिता की इच्छा पूरी करते हुए भारतीय नागरिक सेवा में नियुक्त होने के लिए इंग्लैंड चले गए थे। सुभाष चंद्र बोस ने 1920 में प्रतियोगी परीक्षा के लिए आवेदन किया और योग्यता के अनुसार उन्हें चौथा स्थान मिला। पंजाब में जलियाँवाला बाग हत्याकांड को गंभीरतापूर्वक सुनकर, सुभाष चंद्र बोस ने अपनी सिविल सर्विसेज की शिक्षा को बीच में ही छोड़ दिया और भारत लौट आये।
भारत लौटने के बाद सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित हुए।
1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया और 1931 में गाँधी-इरविन समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
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सुभाष चंद्र बोस, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रमुख नेताओं में से एक थे। सुभाष चंद्र बोस नेताजी के नाम से लोकप्रिय है। उनका जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक नामक शहर में जानकीनाथ बोस और प्रभावती देवी के घर में हुआ था। उनके पिता एक प्रसिद्ध वकील थे और उनकी माँ एक धार्मिक महिला थी। चौदह भाईयो में उनका 9 वाँ स्थान था।
वह अपने माता-पिता की इच्छा पूरी करते हुए भारतीय नागरिक सेवा में नियुक्त होने के लिए इंग्लैंड चले गए थे। सुभाष चंद्र बोस ने 1920 में प्रतियोगी परीक्षा के लिए आवेदन किया और योग्यता के अनुसार उन्हें चौथा स्थान मिला। पंजाब में जलियाँवाला बाग हत्याकांड को गंभीरतापूर्वक सुनकर, सुभाष चंद्र बोस ने अपनी सिविल सर्विसेज की शिक्षा को बीच में ही छोड़ दिया और भारत लौट आये।
भारत लौटने के बाद सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित हुए।
1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया और 1931 में गाँधी-इरविन समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
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सुभास चंद्र बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। जिनकी निडर देशभक्ति ने उन्हें देश का हीरो बनाया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था।
बाद में सम्माननीय नेताजी ने पहले जर्मनी की सहायता लेते हुए जर्मन में ही विशेष भारतीय सैनिक कार्यालय की स्थापना बर्लिन में 1942 के प्रारम्भ में की, जिसका 1990 में भी उपयोग किया गया था।
शुरू में 1920 के अंत ने बीसे राष्ट्रिय युवा कांग्रेस के उग्र नेता थे एवं 1938 और 1939 को वे भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। लेकिन बाद में कुछ समय बाद ही 1939 में उन्हें महात्मा गांधी / Mahatma Gandhi से चल से विवाद के कारण अपने पद को छोडना पड़ा।
लेकिन 1940 में भारत छोड़ने से पहले ही उन्हें ब्रिटिश ने अपने गिरफ्त में कर लिया था। अप्रैल 1941 को बोस को जर्मनी लाया गया।
नवंबर 1941 में, जर्मन पैसो से ही उन्होंने बर्लिन में इंडिया सेंटर की स्थापना की और कुछ ही दिनों बाद फ्री इंडिया रेडियो की भी स्थापना की, जिसपर रोज़ रात को बोस अपना कार्यक्रम किया करते। तक़रीबन 3000 मजबुत स्वयं सेवी सैनिको ने इरविन रोमेल्स द्वारा हथियाए अफ्रीका कॉर्प्स को अपने कब्जे में किया।
बाद में सुभाषचंद्र बोस को जर्मन से बहोत सहायता मिली और उन्होंने भारत की खोज के लिये जर्मन जमीन का भी उपयोग किया। इसी दौरान बोस पिता भी बने, उनकी पत्नी और सहयोगी एमिली स्किनल, जिनसे वे 1934 में मिले थे। उन्होंने एक बच्ची को जन्म दिया।
फेब्रुअरी 1943 में सुभाषचंद्र बोस जर्मन पनडुब्बियों पर पहुचें। मैडागास्कर में, उन्हें जापानीज पनडुब्बी में स्थानांतरित किया गया। जहा मई 1943 में वे जापानीज स्थान सुमात्रा में उतरे।
जापानियों की सहायता से ही सुभाष चंद्र बोस – Subhash Chandra Bose ने इंडियन नेशनल आर्मी (INA) का पुनर्निर्माण किया। जिसमे ब्रिटिश इंडियन आर्मी के भारतीय सैनिक भी शामिल थे। जिन्होंने सिंगापुर युद्ध में महान कार्य किया था। इस तरह बोस के आने से मलैया और सिंगापुर में भारतीय नागरीकों की संख्या बढ़ने लगी।
सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में जापानीज भारतीय सरकार को विभिन्न क्षेत्रो में सहायता करने के लिये राजी हुए। जैसे की उन्होंने बर्मा की सहायता की थी। और साथ ही जैसा साथ उन्होंने फिलीपींस और मांचुकुओ का दिया था। उन्होंने भारत की अस्थाई सरकार, जिसे बोस प्रतिपादित कर रहे थे, की स्थापना जापानीयो के साथ मिलकर अंडमान और निकबर में की।
सुभाषचंद्र बोस अच्छी तरह से अपनी सेना का नेतृत्व कर रहे थे – उनमे काफी करिश्माई ताकत समायी थी। इसी के चलते उन्होंने प्रसिद्ध भारतीय नारे “जय हिन्द” की घोषणा की। और उसे अपनी आर्मी का नारा बनाया। उनकें नेतृत्व में निर्मित इंडियन नेशनल आर्मी एकता और समाजसेवा की भावना से बनी थी।
1944 के अंत में और 1945 के प्रारम्भ में ब्रिटिश इंडियन आर्मी पहले तो रुकी थी लेकिन बाद में उन्होंने पुनः भारत पर आक्रमण किया। जिसमे लगभग आधी जापानी शक्ति और इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल आधे जापानी सैनिक मारे गए। बाद में इंडियन नेशनल आर्मी मलय पेनिनसुला गयी जहा सिंगापुर में उन्हें देखा गया था और उन्होंने स्वयं ही खुद को जापानियों के हवाले कर दिया था।
बोस ने पहले जापानियों के डर से आत्मसमपर्ण का निर्णय नही लिया था। बल्कि उन्होंने भागकर मंचूरिया जाने की बजाये सोवियत संघ के भविष्य के लिये आत्मसमर्पण करने की ठानी।
ताइवान में हुए विमान अपघात में उनकी मृत्यु हो गयी थी। लेकिन आज भी बहोत से भारतीयो को इस बात पर विश्वास नही की उनका विमान हादसा वास्तव में हुआ था भी या नही। उस समय हादसे के बाद भी भारतीय बंगाल प्रान्त के लोगो को भरोसा था की बोस भारत की आजादी के लिये दोबारा आएंगे।
रंगून के ‘जुबली हॉल’ में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया गया वह भाषण सदैव के लिए इतिहास के पत्रों में अंकित हो गया। जिसमें उन्होंने कहा था कि- “स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है। किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है।
आज़ादी को आज अपने शीश फूल चढ़ा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है। जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता देवी को भेट चढ़ा सकें।
“तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।”
इस वाक्य के जवाब में नौजवानों ने कहा – “हम अपना ख़ून देंगे” उन्होंने आईएनए को ‘दिल्ली चलो’ का नारा भी दिया। सुभाष भारतीयता की पहचान ही बन गए थे और भारतीय युवक आज भी उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। वे भारत की अमूल्य निधि थे। ‘जय हिन्द’ का नारा और अभिवादन उन्हीं की देन है।
सुभाष चंद्र बोस के ये घोषवाक्य आज भी हमें रोमांचित करते है। यही एक वाक्य सिद्ध करता है कि जिस व्यक्तित्व ने इसे देश हित में सबके सामने रखा वह किस जीवन का व्यक्ति होगा।
‘इंडियन नेशनल आर्मी’ के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु पर इतने वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी रहस्य छाया हुआ है। सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु हवाई दुर्घटना में मानी जाती है। समय गुजरने के साथ ही भारत में भी अधिकांश लोग ये मानते है कि नेताजी की मौत ताईपे में विमान हादसे में हुई।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस सर्वकालिक नेता थे, जिनकी ज़रूरत कल थी। आज है और आने वाले कल में भी होगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे, इतिहास जिनकी गाथा गाता रहेगा। उनके विचार, कर्म और आदर्श अपना कर राष्ट्र वह सब कुछ हासिल कर सकता है, जिसका वह हक़दार है। सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्रता समर के अमर सेनानी, मां भारती के सच्चे सपूत थे।
उनकी बोलने की शैली में जादू था और उन्होंने देश से बाहर रहकर ‘स्वतंत्रता आंदोलन’ चलाया। नेताजी मतभेद होने के बावज़ूद भी अपने साथियो का मान सम्मान रखते थे। उनकी व्यापक सोच आज की राजनीति के लिए भी सोचनीय विषय है।
बाद में सम्माननीय नेताजी ने पहले जर्मनी की सहायता लेते हुए जर्मन में ही विशेष भारतीय सैनिक कार्यालय की स्थापना बर्लिन में 1942 के प्रारम्भ में की, जिसका 1990 में भी उपयोग किया गया था।
शुरू में 1920 के अंत ने बीसे राष्ट्रिय युवा कांग्रेस के उग्र नेता थे एवं 1938 और 1939 को वे भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। लेकिन बाद में कुछ समय बाद ही 1939 में उन्हें महात्मा गांधी / Mahatma Gandhi से चल से विवाद के कारण अपने पद को छोडना पड़ा।
लेकिन 1940 में भारत छोड़ने से पहले ही उन्हें ब्रिटिश ने अपने गिरफ्त में कर लिया था। अप्रैल 1941 को बोस को जर्मनी लाया गया।
नवंबर 1941 में, जर्मन पैसो से ही उन्होंने बर्लिन में इंडिया सेंटर की स्थापना की और कुछ ही दिनों बाद फ्री इंडिया रेडियो की भी स्थापना की, जिसपर रोज़ रात को बोस अपना कार्यक्रम किया करते। तक़रीबन 3000 मजबुत स्वयं सेवी सैनिको ने इरविन रोमेल्स द्वारा हथियाए अफ्रीका कॉर्प्स को अपने कब्जे में किया।
बाद में सुभाषचंद्र बोस को जर्मन से बहोत सहायता मिली और उन्होंने भारत की खोज के लिये जर्मन जमीन का भी उपयोग किया। इसी दौरान बोस पिता भी बने, उनकी पत्नी और सहयोगी एमिली स्किनल, जिनसे वे 1934 में मिले थे। उन्होंने एक बच्ची को जन्म दिया।
फेब्रुअरी 1943 में सुभाषचंद्र बोस जर्मन पनडुब्बियों पर पहुचें। मैडागास्कर में, उन्हें जापानीज पनडुब्बी में स्थानांतरित किया गया। जहा मई 1943 में वे जापानीज स्थान सुमात्रा में उतरे।
जापानियों की सहायता से ही सुभाष चंद्र बोस – Subhash Chandra Bose ने इंडियन नेशनल आर्मी (INA) का पुनर्निर्माण किया। जिसमे ब्रिटिश इंडियन आर्मी के भारतीय सैनिक भी शामिल थे। जिन्होंने सिंगापुर युद्ध में महान कार्य किया था। इस तरह बोस के आने से मलैया और सिंगापुर में भारतीय नागरीकों की संख्या बढ़ने लगी।
सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में जापानीज भारतीय सरकार को विभिन्न क्षेत्रो में सहायता करने के लिये राजी हुए। जैसे की उन्होंने बर्मा की सहायता की थी। और साथ ही जैसा साथ उन्होंने फिलीपींस और मांचुकुओ का दिया था। उन्होंने भारत की अस्थाई सरकार, जिसे बोस प्रतिपादित कर रहे थे, की स्थापना जापानीयो के साथ मिलकर अंडमान और निकबर में की।
सुभाषचंद्र बोस अच्छी तरह से अपनी सेना का नेतृत्व कर रहे थे – उनमे काफी करिश्माई ताकत समायी थी। इसी के चलते उन्होंने प्रसिद्ध भारतीय नारे “जय हिन्द” की घोषणा की। और उसे अपनी आर्मी का नारा बनाया। उनकें नेतृत्व में निर्मित इंडियन नेशनल आर्मी एकता और समाजसेवा की भावना से बनी थी।
1944 के अंत में और 1945 के प्रारम्भ में ब्रिटिश इंडियन आर्मी पहले तो रुकी थी लेकिन बाद में उन्होंने पुनः भारत पर आक्रमण किया। जिसमे लगभग आधी जापानी शक्ति और इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल आधे जापानी सैनिक मारे गए। बाद में इंडियन नेशनल आर्मी मलय पेनिनसुला गयी जहा सिंगापुर में उन्हें देखा गया था और उन्होंने स्वयं ही खुद को जापानियों के हवाले कर दिया था।
बोस ने पहले जापानियों के डर से आत्मसमपर्ण का निर्णय नही लिया था। बल्कि उन्होंने भागकर मंचूरिया जाने की बजाये सोवियत संघ के भविष्य के लिये आत्मसमर्पण करने की ठानी।
ताइवान में हुए विमान अपघात में उनकी मृत्यु हो गयी थी। लेकिन आज भी बहोत से भारतीयो को इस बात पर विश्वास नही की उनका विमान हादसा वास्तव में हुआ था भी या नही। उस समय हादसे के बाद भी भारतीय बंगाल प्रान्त के लोगो को भरोसा था की बोस भारत की आजादी के लिये दोबारा आएंगे।
रंगून के ‘जुबली हॉल’ में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया गया वह भाषण सदैव के लिए इतिहास के पत्रों में अंकित हो गया। जिसमें उन्होंने कहा था कि- “स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है। किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है।
आज़ादी को आज अपने शीश फूल चढ़ा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है। जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता देवी को भेट चढ़ा सकें।
“तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।”
इस वाक्य के जवाब में नौजवानों ने कहा – “हम अपना ख़ून देंगे” उन्होंने आईएनए को ‘दिल्ली चलो’ का नारा भी दिया। सुभाष भारतीयता की पहचान ही बन गए थे और भारतीय युवक आज भी उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। वे भारत की अमूल्य निधि थे। ‘जय हिन्द’ का नारा और अभिवादन उन्हीं की देन है।
सुभाष चंद्र बोस के ये घोषवाक्य आज भी हमें रोमांचित करते है। यही एक वाक्य सिद्ध करता है कि जिस व्यक्तित्व ने इसे देश हित में सबके सामने रखा वह किस जीवन का व्यक्ति होगा।
‘इंडियन नेशनल आर्मी’ के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु पर इतने वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी रहस्य छाया हुआ है। सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु हवाई दुर्घटना में मानी जाती है। समय गुजरने के साथ ही भारत में भी अधिकांश लोग ये मानते है कि नेताजी की मौत ताईपे में विमान हादसे में हुई।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस सर्वकालिक नेता थे, जिनकी ज़रूरत कल थी। आज है और आने वाले कल में भी होगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे, इतिहास जिनकी गाथा गाता रहेगा। उनके विचार, कर्म और आदर्श अपना कर राष्ट्र वह सब कुछ हासिल कर सकता है, जिसका वह हक़दार है। सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्रता समर के अमर सेनानी, मां भारती के सच्चे सपूत थे।
उनकी बोलने की शैली में जादू था और उन्होंने देश से बाहर रहकर ‘स्वतंत्रता आंदोलन’ चलाया। नेताजी मतभेद होने के बावज़ूद भी अपने साथियो का मान सम्मान रखते थे। उनकी व्यापक सोच आज की राजनीति के लिए भी सोचनीय विषय है।
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