Hindi, asked by jayanth4241, 1 year ago

summary of chara katne ki machine by upendranath​

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Answered by DreamBoy786
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Answer:

Explanation:

रेल की लाइनों के पार, इस्लामाबाद की नई आबादी के मुसलमान जब सामान का मोह छोड़, जान का मोह लेकर भागने लगे तो हमारे पड़ोसी लहनासिंह की पत्नी चेती.

''तुम हाथ पर हाथ धरे नामर्दों की भांति बैठे रहोगे,'' सरदारनी ने कहा,''और लोग एक से एक बढ़िया घर पर कब्ज़ा कर लेंगे.''

सरदार लहनासिंह और चाहे जो सुन लें, परन्तु औरत जात के मुंह से 'नामर्द' सुनना उन्हें कभी गवारा न था. इसलिए उन्होंने अपनी ढीली पगड़ी को उतारकर फिर से जूड़े पर लपेटा; धरती पर लटकती हुई तहमद का किनारा कमर में खोंसा; कृपाण को म्यान से निकालकर उसकी धार का निरीक्षण करके उसे फिर म्यान में रखा और फिर इस्लामाबाद के किसी बढ़िया 'नए' मकान पर अधिकार जमाने के विचार से चल पड़े.

वे अहाते ही में थे कि सरदारनी ने दौड़कर एक बड़ा-सा ताला उनके हाथ में दे दिया. ''मकान मिल गया तो उस पर अपना कब्जा कैसे जमाओगे?''

सरदार लहनासिंह ने एक हाथ में ताला लिया, दूसरा कृपाण पर रखा और लाइनें पार कर इस्लामाबाद की ओर बढ़े.

खालसा कालेज रोड, अमृतसर पर, पुतली घर के समीप ही हमारी कोठी थी. उसके बराबर एक खुला अहाता था. वहीं सरदार लहनासिंह चारा काटने की मशीनें बेचते थे. अहाते के कोने में दो-तीन अंधेरी-सीली कोठरियां थीं.

मकान की किल्लत के कारण सरदार साहब वहीं रहते थे. यद्यपि काम उन्होंने डेढ़-दो हज़ार रुपये से आरम्भ किया था, पर लड़ाई के दिनों में (किसानों के पास रुपये का बाहुल्य होने से) उनका काम ख़ूब चमका. रुपया आया तो सामान भी आया और सुख-सुविधा की आकांक्षा भी जगी. यद्यपि प्रारम्भ में उस अहाते और उन कोठरियों को पाकर पति-पत्नी बड़े प्रसन्न हुए थे, परन्तु अब उनकी पत्नी, जो 'सरदारनी' कहलाने लगी थी, उन कोठरियों तथा उनकी सील और अंधेरे को अतीव उपेक्षा से देखने लगी थी. ग्राहकों को मशीनों की फुर्ती दिखाने के लिए दिन-भर उसमें चारा कटता रहता था. अहाते-भर में मशीनों की कतारें लगी थीं जो भावना-रहित हो अपने तीखे छूरों से चारे के पूले काटती रहती थीं. सरदारनी के कानों में उनकी कर्कश ध्वनि हथौड़ों की अनवरत चोटों-सी लगती थीं. जहां-तहां पड़े हुए चरी के पूले और चारे के ढेर अब उसकी आंखों को अखरने लगे. सरदार लहनासिंह तो यद्यपि उनकी पगड़ी और तहमद रेशमी हो गयी थी और उनके गले में लकीरदार गबरुन की कमीज का स्थान घुटनों तक लम्बी बोस्की की कमीज ने ले लिया था वही पुराने लहनासिंह थे. उन्हें न कोठरियों की तंगी अखरती थी, न तारीकी, न मशीनों की कर्कशता, न चारे के ढेरों की निरीहता, बल्कि वे तो इस सारे वातावरण में बड़े मस्त रहते थे. वे उन सरदारों में से हैं जिनके सम्बन्ध में एक सिख लेखक ने लिखा है कि जिधर से पलटकर देख लो, सिख दिखाई देंगे.

कुछ पतले-दुबले हों, यह बात नहीं. अच्छे-खासे हृष्ट-पुष्ट आदमी थे और उनकी मर्दुमी के परिणामस्वरूप पांच बच्चे जोंकों की तरह सरदारनी से चिपटे रहते थे. परन्तु यह सरदारनी का ढंग था. उसे यदि सरदार लहनासिंह से कोई काम कराना होता, जिसमें कुछ बुद्धि की आवश्यकता हो तो वह उन्हें 'बुद्धू' कहकर उकसाती और यदि ऐसा काम कराना होता, जिसमें कुछ बहादुरी की जरूरत हो तो उन्हें नामर्द का ताना देती. उसका ढंग था तो खासा अशिष्ट पर रुपया आने और अच्छे कपड़े पहनने ही से तो अशिष्ट आदमी शिष्ट नहीं हो जाता. फिर सरदारनी को नए धन का भान चाहे हो, शिष्टता का भान कभी न था.

सरदार लहनासिंह इस्लामाबाद पहुंचे तो वहां मार-धाड़ मची हुई थी. उनकी चारा काटने की मशीनें जिस प्रकार भावना-रहित होकर चरी के निरीह पूले काटती थीं, कुछ उसी प्रकार उन दिनों एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों को काट रहे थे. सरदार लहनासिंह ने अपनी चमचमाती हुई कृपाण निकाली कि यदि किसी मुसलमान से मुठभेड़ हो जाए तो तत्काल उसे अपनी मर्दुमी का प्रमाण दे दें. परन्तु इस ओर जीवित मुसलमान का निशान तक न था. हां, गलियों में रक्तपात के चिह्न अवश्य थे. और दूर लूट-मार की आवाज़ें भी आ रही थीं

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