Summary of hindi story putra prem
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किन्तु कुछ ऐसा संयोग हुआ कि प्रभादास को बी०ए० की परीक्षा के बाद ज्वर आने लगा। डाक्टरों की दवा होने लगी। एक मास तक नित्य डाक्टर साहब आते रहे, पर ज्वर में कमी न हुई दूसरे डाक्टर का इलाज होने लगा। पर उससे भी कुछ लाभ न हुआ। प्रभुदास दिनों दिन क्षीण होता चला जाता था। उठने-बैठने की शक्ति न थी यहां तक कि परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का शुभ-सम्बाद सुनकर भी उसक चेहरे पर हर्ष का कोई चिन्हृ न दिखाई दिया । वह सदैव गहरी चिन्जा में डुबा रहाता था । उसे अपना जीवन बोझ सा जान पडने लगा था । एक रोज चैतन्यादास ने डाक्टर साहब से पूछा यह क्याा बात है कि दो महीने हो गये और अभी तक दवा कोई असर नहीं हुआ ?
डाक्टर साहब ने सन्देहजनक उत्तर दिया- मैं आपको संशय में नही डालना चाहता । मेरा अनुमान है कि यह टयुबरक्युलासिस है ।
चैतन्यादास ने व्यग्र होकर कहा – तपेदिक ?
डाक्टर - जी हां उसके सभी लक्षण दिखायी देते है।
चैतन्यदास ने अविश्वास के भाव से कहा मानों उन्हे विस्मयकारी बात सुन पड़ी हो –तपेदिक हो गया !
डाक्टर ने खेद प्रकट करते हुए कहा- यह रोग बहुत ही गुप्तरीति सेशरीर में प्रवशे करता है।
चैतन्यदास – मेरे खानदान में तो यह रोग किसी को न था।
डाक्टर – सम्भव है, मित्रों से इसके जर्म (कीटाणु ) मिले हो।
चैतन्यदास कई मिनट तक सोचने के बाद बोले- अब क्या करना चाहिए ।
डाक्टर -दवा करते रहिये । अभी फेफड़ो तक असर नहीं हुआ है इनके अच्छे होने की आशा है ।
चैतन्यदास – आपके विचार में कब तक दवा का असर होगा?
डाक्टर – निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता । लेकिन तीन चार महीने में वे स्वस्थ हो जायेगे । जाड़ो में इसरोग का जोर कम हो जाया करता है ।
चैतन्यदास – अच्छे हो जाने पर ये पढने में परिश्रम कर सकेंगे ?
डाक्टर – मानसिक परिश्रम के योग्य तो ये शायद ही हो सकें।
चैतन्यदास – किसी सेनेटोरियम (पहाड़ी स्वास्थयालय) में भेज दूँ तो कैसा हो?
डाक्टर - बहुत ही उत्तम ।
चैतन्यदास तब ये पूर्णरीति से स्वस्थ हो जाएंगे?
डाक्टर - हो सकते है, लेकिन इस रोग को दबा रखने के लिए इनका मानसिक परिश्रम से बचना ही अच्छा है।
चैतन्यदास नैराश्य भाव से बोले – तब तो इनका जीवन ही नष्ट हो गया।
बाबू चैतन्यादास ने अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था, और केवल पढ़ा ही नहीं था, उसका यथायोग्य व्याहार भी वे करते थे। वे वकील थे, दो-तीन गांवो मे उनक जमींदारी भी थी, बैंक में भी कुछ रुपये थे। यह सब उसी अर्थशास्त्र के ज्ञान का फल था। जब कोई खर्च सामने आता तब उनके मन में स्वाभावत: प्रश्न होता था-इससे स्वयं मेरा उपकार होगा या किसी अन्य पुरुष का? यदि दो में से किसी का कुछ भी उपहार न होता तो वे बड़ी निर्दयता से उस खर्च का गला दबा देते थे। ‘व्यर्थ’ को वे विष के समाने समझते थे। अर्थशास्त्र के सिद्धन्त उनके जीवन-स्तम्भ हो गये थे।
बाबू साहब के दो पुत्र थे। बड़े का नाम प्रभुदास था, छोटे का शिवदास। दोनों कालेज में पढ़ते थे। उनमें केवल एक श्रेणी का अन्तर था। दोनो ही चुतर, होनहार युवक थे। किन्तु प्रभुदास पर पिता का स्नेह अधिक था। उसमें सदुत्साह की मात्रा अधिक थी और पिता को उसकी जात से बड़ी-बड़ी आशाएं थीं। वे उसे विद्योन्नति के लिए इंग्लैण्ड भेजना चाहते थे। उसे बैरिस्टर बनाना उनके जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी।2nd