Summary on akbari lota in hindi
Answers
अकबरी लोटा लेखक अन्नपूर्णानन्द वर्मा की व्यंग्य रचना है | यह कहानी है बनारस में स्थित काशी के श्री लाला झाऊलाल और उनके एतिहासिक लोटे की |
लाला झाऊलाल कशी के ठठेरी बाज़ार में रह रहे एक खाते पीते और स्वाभिमानी व्यक्ति थे | अपने मकान के नीचे बने दुकानों से सौ रुपये मासिक किराया कमाते थे जो ज्यादातर उनके अच्छे खाने पीने और पहनने में खर्च हो जाते थे | एक दिन उनकी पत्नी ने ढाई सौ रुपये की मांग की | पत्नी के अचानक इतने रुपये मांगने पर लालाजी हैरान हो गए और उनका दिल बैठ गया | यह भांपते हुए उनकी पत्नी ने अपने भाई से रुपये लेने की बात कही जो लालाजी को नागवार गुजरी और उन्होंने एक हफ्ते में पैसे देने का वायदा किया |
लोगों के बीच डींगे हांकने वाले लालाजी की स्वाभिमान पे आ बन पड़ा था पर रुपयों का इंतजाम चार दिनों में भी न हो सका | फिर वो पंडित बिलवासी मिश्र के पास गए और सब बताया | पंडित जी के पास रुपया नहीं था फिर भी उन्होंने कहा की वो कैसे भी मांग जांचकर लाने की कोशिश करेंगे और उनसे उनके मकान पर दुसरे दिन मिलेंगे |
दुसरे दिन लालाजी परेशान होके छत पर टेहेल रहे थे की अगर रुपया नहीं मिला तो वो पत्नी को मुह दिखने काबिल नहीं रहेंगे | उन्हें प्यास लगी तो नौकर को पानी के लिए आवाज़ लगाई | उनकी पत्नी ग्लास भूल गयीं और लोटे में पानी ले आईं | लोटा बदसूरत और आड़ा टेढ़ा था और लालाजी को बिलकुल पसंद न था पर पत्नी से उस बात पर बहस करके उसका नतीजा भुगतने का साहस न था | वो अपना गुस्सा दबाकर पानी पीने लगे | दो चार घूंट पिया ही था की लोटा उनकी हाथ से छूट गया और नीचे एक दूकान पर खड़े एक अंग्रेज की पैर पर गिरा | लालाजी के हाथ पाँव फूल गए और वो नीचे भागे | भीड़ उनकी आँगन में जमा हो गया था और अंग्रेज गुस्से से लालाजी को अंग्रेजी में गाली देने लगा | इतने में पंडित बिलवासी जी आगए और मौके का फायदा उठाते हुए एक चाल चली | भीड़ को बाहर का रास्ता दिखाकर अंग्रेज को विनम्रता से एक कुर्सी पर बैठाया और अंग्रेज के पूछने पर की वो लालाजी को जानते हैं या नहीं उन्हें पहचान्ने से इनकार कर दिया | पंडित जी ने लालाजी को पुलिस से पकड़वाने का सुझाव दिया और लालाजी से लोटा पचास रुपये में खुद खरीदने की बात कही | अंग्रेज के हैरान होने पर उन्होंने उस लोटे को एतिहासिक बताया और बताया की वह अकबरी लोटा है जिसकी तालाश दुनिया भर के म्यूजियम को है|
उन्होंने बताया की सोलहवीं शताब्दी में बादशाह हुमायू शेरशाह से हारने के बाद रेगिस्तान में मारा मारा फिर रहा था तब एक ब्राह्मण ने इसी लोटे से पानी पिलाकर उनकी प्यास बुझायी थी | अकबर ने ब्राह्मण का पता लगाकर उसे दस सोने के लोटे दिए और यह लोटा उनसे ले लिया | यह लोटा उन्हें बहुत प्यारा था इसलिए इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा | बाद में वह लोटा गायब हो गया और पता नहीं कैसे लालाजी के पास आया |
अंग्रेज पुरानी चीजों को संग्रह करने का शौक़ीन था और अपने एक अंग्रेज पड़ोसी के संग्रह को देख कर और उसकी डींगो से परेशान था | उसने उस लोटे को सौ रुपये में खरीदने की बात कही जिसपे पंडित जी ने एतराज जताया और उनके बीच लोटे के लिए बोली लगने लगी | जब पंडित जी ने ढाई सौ रुपये रखकर ताव दिखाया | अंग्रेज ने जोश में आते हुए पांच सौ रुपये देने की बात कही जिसपे पंडित जी कुछ न बोल सके और दुखी मन से अपने ढाई सौ रुपये उठा लिए | तब अंग्रेज ने अपने पड़ोसी मेजर डगलस के जहांगीरी अंडे के बारे में बताया जो की दरअसल इसी तरह की ठगी से दिल्ली में एक मुसलमान ने उसे बेचा था | अंग्रेज के जाने के बाद लालाजी की ख़ुशी का ठिकाना न था |
पंडित जी जब अपने घर गए तब उन्हें नींद नहीं आ रही थी | फिर उन्होंने अपनी सोई पत्नी के गले की चैन से सन्दूक की चाभी निकाली और वापस ढाई सौ रुपये रख दिए जो उन्होंने इसी तरह चोरी छुपे निकाले थे लालाजी को देने लिए | अब पैसे वापस होने पर उन्हें चैन की नीदं आई |
---------------------------------------------------------------------------------
Explanation:
लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था। नीचे की दुकानों से एक सौ रुपये मासिक के करीब किराया उतर आता था। अच्छा खाते थे, अच्छा पहनते थे, पर ढ़ाई सौ रुपये तो एक साथ आँख सेंकने के लिए भी न मिलते थे।
मासिक – महीने
लेखक कहते हैं कि लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। अच्छे खाते पीते परिवार से थे और व्यवसाय भी अच्छा खासा चल रहा था। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था। मकान के नीचे बनी दुकानों से महीने के करीब एक सौ रुपये किराया आ जाता था। अर्थात् उन्हें किसी तरह की कमी नहीं थी अच्छा व्यवसाय था, अच्छा बड़ा मकान था, और मकान की दुकानों का एक सौ रुपये के करीब किराया भी आ जाता था तो गुजरा अच्छे से हो जाता था। परन्तु फिर भी एक साथ ढ़ाई सौ रूपए होना बहुत बड़ी बात थी।
इसलिए जब उनकी पत्नी ने एक दिन एकाएक ढाई सौ रुपये की माँग पेश की, तब उनका जी एक बार जोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। उनकी यह दशा देखकर पत्नी ने कहा- ‘डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से माँग लूँ?’
ढाई सौ – 250
लेखक ने पहले ही कहा है कि एक साथ ढाई सौ रूपए होना कठिन होता है इसलिए जब लाला झाऊलाल की पत्नी ने एक दिन अचानक ढाई सौ रुपये की माँग उनके सामने जाहिर की तब लाला झाऊलाल का दिल ही घबरा गया और उनका दिल भी बैठ गया। उनकी यह दशा देखकर उनकी पत्नी ने कहा कि अगर लाला झाऊलाल अपनी पत्नी को पैसे नहीं दे सकते हैं, तोवह अपने भाई से माँग लेगी।
लाला झाऊलाल तिलमिला उठे। उन्होंने रोब के साथ कहा- ’अजी हटो, ढाई सौ रुपये के लिए भाई से भीख माँगोगी, मुझसे ले लेना।’ लेकिन मुझे इसी जिंदगी में चाहिए।’ अजी इसी सप्ताह में ले लेना। ’सप्ताह से आपका तात्पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से?’ लाला झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा-’आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपये ले लेना।’
रोब – अकड़
लेखक कहते हैं कि जब लाला झाऊलाल की पत्नी ने अपने भाई से पैसे माँगने की बात कही तो लाला झाऊलाल क्रोधित हो उठे कि उनके होते हुए उनकी पत्नी अपने भाई से पैसे माँगेगी, यह बात उन्हें जरा सा भी मंजूर नहीं थी। उन्होंने अकड़ के साथ कहा कि ढाई सौ रुपये के लिए भाई से भीख माँगोगी क्या? वह ढाई सौ रुपये का इंतजाम कर देगा। लेकिन उनकी पत्नी ने कहा कि उसे ये रूपए इसी जिंदगी में चाहिए। इस पर लाला झाऊलाल ने कहा कि वह इसी सप्ताह में उसे रूपए दे देगा। इस पर उनकी पत्नी ने उन्हें टोकते हुए कहा कि उनका सप्ताह कहने का अभिप्राय सात दिन से है या सात वर्ष से? तो लाला झाऊलाल गुस्से के साथ खड़े होते हुए बोले कि आज से गिन कर सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपये ले लेना।
लेकिन जब चार दिन ज्यों-त्यों में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध न हो सका तब उन्हें चिंता होने लगी। प्रश्न अपनी प्रतिष्ठा का था, अपने ही घर में अपनी साख का था। देने का पक्का वादा करके अगर अब दे न सके तो अपने मन में वह क्या सोचेगी?
प्रतिष्ठा – इज्जत
लेखक कहता है कि सात दिन बाद रूपए लेने के लिए तो लाला झाऊलाल ने बोल दिया था लेकिन जब चार दिन का समय ऐसे ही बिना रुपयों के प्रबंध के बीत गया तो झाऊलाल को चिंता होने लगी कि उन्होंने अपनी पत्नी को पैसे देने का वादा तो कर दिया अगर नहीं दे पाए तो क्या होगा? अब प्रश्न उनकी अपनी प्रतिष्ठा का था, इज्जत का था। अपने ही घर में इज्जत दाव पर लगी थी। वे सोचने लगे कि देने का पक्का वादा करके अगर अब दे न सके तो उनकी पत्नी अपने मन में उनके बारे में न जाने क्या सोचेगी?
उसकी नज़रों में उसका क्या मूल्य रह जाएगा? अपनी वाहवाही की सैकड़ों गाथाएँ सुना चुके थे। अब जो एक काम पडा़ तो चारों खाने चित्त हो रहे। यह पहली बार उसने मुँह खोलकर कुछ रुपयों का सवाल किया था। इस समय अगर दुम दबाकर निकल भागते हैं तो फिर उसे क्या मुँह दिखलाएँगे?
गाथाएँ – कहानियाँ
दुम – पूंछ
लाला झाऊलाल सोच रहे थे कि अगर उन्होंने अपनी पत्नी को पैसे नहीं दिए तो उसकी नज़रों में उनका क्या मूल्य रह जाएगा? उन्होंने अपनी पत्नी ने सामने अपनी तारीफों की सैकड़ों कहानियाँ सुना रखी थी। अब उन्हें डर था कि कहीं उनकी कही हुई बातें झूठी साबित न हो जाए। वह यह न सोचे कि अब जो एक काम पडा़ है तो लाला झाऊलाल पूरी तरह से हार गए है। उनकी पत्नी ने पहली बार अपनी इच्छा जाहिर की थी कि उसे कुछ रुपये चाहिए। इस समय अगर किसी तरह पत्नी को न कह कर बच निकलते तो वे उसके बाद अपनी पत्नी को क्या मुँह दिखाते?
खैर, एक दिन और बीता। पाँचवें दिन घबराकर उन्होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्ख थे। उन्हानें कहा- “मेरे पास हैं तो नहीं पर मैं कहीं से माँग-जाँच कर लाने की कोशिश करूँगा और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूँगा।”
विपदा – मुसीबत
खुक्ख – खाली हाथ
लेखक कहते हैं कि एक दिन और बीता गया। लेकिन पैसों का इंतजाम नहीं हो पाया। पाँचवें दिन परेशान हो कर उन्होंने अपनी सारी कहानी अपने मित्र पं- बिलवासी मिश्र को सुनाई। लाला झाऊलाल की किस्मत इतनी ख़राब थी कि उस समय उनके मित्र बिलवासी जी के पास भी उतना पैसा नहीं था जितने की वह माँग कर रहे थे। परन्तु लाला झाऊलाल के मित्र ने उन्हें तसल्ली देते हुए कहा कि उनके पास तो इस समय तो उनके पास उतने पैसे नहीं है जीतने की लाला झाऊलाल माँग कर रहे थे, परन्तु उन्होंने कहा कि मित्र होने के नाते उनकी मदद करने के लिए किसी से माँग कर लाने की कोशिश करेंगे और अगर पैसों का इंतज़ाम हो गया तो कल शाम तक वे लाला झाऊलाल को जरूर दे देंगे।
वही शाम आज थी। हफते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपये या तो गिन देना है या सारी हेंकड़ी से हाथ धोना है। यह सच है कि कल रुपया न आने पर उनकी स्त्री उन्हें डामलफाँसी न कर देगी ’केवल जरा-सा हँस देगी। पर वह कैसी हँसी होगी, कल्पना मात्रा से झाऊलाल में मरोड़ पैदा हो जाती थी।
हेंकड़ी – अकड़