summer shobhti us bhujang ko jiske pass saral Ho usko kya Jo dun thi Vishva hit Vineet saral Ho sahanshilta summer Daya ke tabhi puchta Jag hai Bal ka chamakta uske piche jab jagmag Jahan nahin Samarth inshodh ki summer vahan nishfal hai jhooth jaane ka MiS hai ka chhal hai
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क्रांतकारी कवि रामधारी सिंह ”दिनकर” ने कुरुक्षेत्र के तृतीय सर्ग के तीसरे भाग में लिखा है कि किस प्रकार न्याय के लिए युद्ध करना बेहद ज़रूरी हो जाता है। वीर पुरुष युद्ध में जीतते हैं या मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अधिक दया करने से या अत्याचार सहने करने से पौरुष की क्षति होती है। कई बार क्रोध अनिवार्य है। प्रभु राम तीन दिन तक समुद्र की विनय करते रहे कि वह उन्हें रास्ता दे सके लेकिन समुद्र की ओर से कोई जवाब नहीं आया। तब राम अधीर हो गए और अपना धनुष उठा लिया। तब समुद्र उनकी शरण में आ गिरा।
न्यायोचित अधिकार माँगने
से न मिले तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को
जीत, या कि खुद मरके।
किसने कहा, पाप है समुचित
सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ?
उठा न्याय के खड्ग समर में
अभय मारना-मरना ?
क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल
की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज, व्यंजित करते तुम
मानव की कदराई।
हिंसा का आघात तपस्या ने
कब, कहाँ सहा है ?
देवों का दल सदा दानवों
से हारता रहा है।
मनःशक्ति प्यारी थी तुमको
यदि पौरुष ज्वलन से,
लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?
फिर आये क्यों वन से?
पिया भीम ने विष, लाक्षागृह
जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख
कहलायी दासी
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुए विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दन्तहीन,
विषरहित, विनीत, सरल हो ?
रघुपति की विनय
तीन दिवस तक पन्थ माँगते
रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर ‘त्राहि-त्राहि’
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की,
बँधा मूढ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की,
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,
क्षमा वहाँ निष्फल है।
गरल-घूँट पी जाने का
मिस है, वाणी का छल है।
फलक क्षमा का ओढ छिपाते
जो अपनी कायरता,
वे क्या जानें ज्वलित-प्राण
नर की पौरुष-निर्भरता ?
वे क्या जानें नर में वह क्या
असहनशील अनल है,
जो लगते ही स्पर्श हृदय से
सिर तक उठता बल है?
-एजेंसियां