Surdas khal kari kamri chade na duja rang
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कोई सूरदास यूं ही नहीं हो जाता। जीवन के प्रति बड़ी निष्ठां , बड़े समर्पण की जरूरत होती है। सब कुछ ओढ़ा हुआ उतार कर फेंकना पड़ता है। निर्मल और सहज होना पड़ता है। तब जाकर भीतर कुछ हलचल मचती है। बाहर-भीतर देखने की ताकत पैदा होती है। सूर की आँखों पर न जाइए। उसकेपास भले बाहर की दुनिया देखने वाली आँखें न हों पर वह पूरा देखता है। देखता न होता तो वह प्रेम के गीत कैसे गाता, तानपुरे के तारों से मधुर स्वरलहरी कैसे निकालता, बिना किसी की मदद के दूर-दूर तक केरस्ते कैसे नापता और फिर उसी रस्ते से वापस कैसे आता। वह भीतर की आँखों से देखता है। इसीलिए वह चारों ओर देखता है, गहराई तक देखता है। यह प्रकृति का नियम है। बाहर की आँखें बंद होती हैं तो भीतर की आँखें खुल जाती है। जब ये आँखें खुल जाती हैं तो उनसे कुछ भी छिपा नहीं रहता। आकाश में खिला इंद्रधनुष हो या जंगल में खिले फूल, सूरदास सब कुछ देख लेता है। वह कृष्ण की बाललीला भी देखता है और अपने प्रिय के एक दरस के लिए गोपियों की विरह-विदग्ध याचना भी, वह किसी को भी पराजित कर लेने का उद्धव का ज्ञान-दंभ भी देखता है और एकरस अखंड ज्ञान पर मिलन की परमाकांक्षा से भरे प्रेम की विजय भी। उसके जीवन में भले ही कोई रंग न हो पर उसकेहृदय में हर रंग खिलता-बिखरता रहता है। कोई विरला सूरदास ही हिम्मत से श्याम रंग की अकाट्य अनाविल अनंतता को स्वीकार कर सकता है। वही पूरी हिम्मत से कह सकता है कि मेरी कमरिया काली है, इस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ेगा। सूरदास की काली कामरि, चढै़ न दूजो रंग।
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कारी कामरि चढ़े न दूजौ रंग से सूरदास का तात्पर्य है-
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कारी कामरि पर दूजौ रंग न चढ़ने से कवि सूरदास जी का तात्पर्य यह है कि काले रंग के कंबल पर कोई दूसरा रंग चढ़ाना बहुत मुश्किल होता है।
अर्थात् हरि विमुखन व्यक्ति का स्वभाव भी इसी तरह का होता है। उसे कितना भी समझाओ, कितना भी ईश्वर भक्ति का रास्ता दिखाओ पर उसके मन में ईश्वर के प्रति प्रेम नही जागता। वह अपना स्वभाव नही बदलता।
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