Suvidha ardhika abhivrudhi sevalu suchanalu
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आज मानवाधिकार दिवस है।जाहिर है कि देशभर में मानवाधिकार दिवस के उपलक्ष्य में नगर में विभिन्न मानवाधिकार संगठनों ने कार्यक्रम आयोजित किये गये।भारत में अस्पृश्य भूगोल में न कानून का राज है और न कहीं संविधान लागू है।सुप्रीम कोर्ट की अवमानना सत्ता वर्ग के बांए हाथ का खेल है। भारतीय जनता के विरुद्ध युद्धरत है सैनिक राष्ट्र। आर्थिक सुधारों,विकास और इंफ्रा के नाम,शहरीकरण और औद्योगीकरण के बहाने देश के चप्पे चप्पे पर मानवाधिकार का हनन हो रहा है।मीडिया और सोशल मीडिया में भी जनसरोकार के मुद्दे सिरे से गायब है। संसदीय प्रणाली कारपोरेट नीति निर्धारण,कारपोरेट राजनीति और कारपोरेट राजकाज की वजह से अब भारतीय लोकगणराज्य के नागरिकों का प्रतिनिधित्व नहीं करती।
भारत में मानवाधिकार व नागरिक अधिकारों की अनुपस्थिति की मुख्य वजह वर्णवर्चस्वी सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था और इसके तहत जाति व्यवस्था,नस्ली भेदभाव,आदिवासियों का अलगाव और भौगोलिक अस्पृश्यता है।इस तिलिस्म को तोड़ने की कोई पहल किये बिना मानवाधिकार चर्चा आत्मरति के अलावा कुछ नहीं है।
भारत में मनुष्यता और प्रकृति के विरुद्ध सारे युद्ध अपराधी राष्ट्रनेता है। आदिवासियों और अस्पृश्यों का नरसंहार आंतरिक सुरक्षा है। सिख जनसंहार, भोपाल गैस त्रासदी, मरीचझांपी नरसंहार, बाबरी विध्वंस,गुजरात नरसंहार,मुजफ्फरनगर में रामपुर तिराहा बलात्कार कांड,ऐसे ही पूर्वोत्तर और कश्मीर में मानवाधिकार हनने के मामलों,नरसंहारों,सामूहिक बलात्कारकांडो,फर्जी मुठभेड़ों, देश भर में समय समय़ पर हुए दंगों और देशभर में भूमि संघर्षों,जाति संघर्षों के मामलों कोई न्याय हुआ नहीं है।हमारी सारी मेधा इन्हीं अपराधियों को देश की बागडोर सौंपने में खर्च हो रही है और हमीं लोग मानवाधिकार की वातानुकूलित चर्चा भी कर रहे हैं।इसे पाखंड के सिवाय क्या कहा जाये,हमारे पास शब्द नहीं है। भारतीय नागरिक सूचना के अधिकार होने के बावजूद बेहद जरुरी सूचनाओं से वंचित है। नागरिक सेवाएं और बुनियादी जरुरतें क्रयशक्ति पर निर्भर है।ऐसे जनविरोधी नरसंहार समय में हम किसक मानवाधिकार की बात कर रहे हैं,सोचें।मानवाधिकारों का हनन अब सामान्य सी बात हो गई है। सड़कों से थानों तक ऐसे तमाम मामले हर रोज देखने को मिलते हैं। जहां मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ती हैं।
भारत में मानवाधिकार व नागरिक अधिकारों की अनुपस्थिति की मुख्य वजह वर्णवर्चस्वी सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था और इसके तहत जाति व्यवस्था,नस्ली भेदभाव,आदिवासियों का अलगाव और भौगोलिक अस्पृश्यता है।इस तिलिस्म को तोड़ने की कोई पहल किये बिना मानवाधिकार चर्चा आत्मरति के अलावा कुछ नहीं है।
भारत में मनुष्यता और प्रकृति के विरुद्ध सारे युद्ध अपराधी राष्ट्रनेता है। आदिवासियों और अस्पृश्यों का नरसंहार आंतरिक सुरक्षा है। सिख जनसंहार, भोपाल गैस त्रासदी, मरीचझांपी नरसंहार, बाबरी विध्वंस,गुजरात नरसंहार,मुजफ्फरनगर में रामपुर तिराहा बलात्कार कांड,ऐसे ही पूर्वोत्तर और कश्मीर में मानवाधिकार हनने के मामलों,नरसंहारों,सामूहिक बलात्कारकांडो,फर्जी मुठभेड़ों, देश भर में समय समय़ पर हुए दंगों और देशभर में भूमि संघर्षों,जाति संघर्षों के मामलों कोई न्याय हुआ नहीं है।हमारी सारी मेधा इन्हीं अपराधियों को देश की बागडोर सौंपने में खर्च हो रही है और हमीं लोग मानवाधिकार की वातानुकूलित चर्चा भी कर रहे हैं।इसे पाखंड के सिवाय क्या कहा जाये,हमारे पास शब्द नहीं है। भारतीय नागरिक सूचना के अधिकार होने के बावजूद बेहद जरुरी सूचनाओं से वंचित है। नागरिक सेवाएं और बुनियादी जरुरतें क्रयशक्ति पर निर्भर है।ऐसे जनविरोधी नरसंहार समय में हम किसक मानवाधिकार की बात कर रहे हैं,सोचें।मानवाधिकारों का हनन अब सामान्य सी बात हो गई है। सड़कों से थानों तक ऐसे तमाम मामले हर रोज देखने को मिलते हैं। जहां मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ती हैं।
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