Hindi, asked by misssonathakur, 1 month ago

तोड़ती पत्थर' कविता पूँजीवादी समाज व्यवस्था पर प्रहार है। इस
की सार्थकता प्रमाणित कीजिए।​

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Answered by dholpuriyalalita
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Answer:

तोड़ती पत्थर' संभवत: 1935 में लिखी गई थी. तब तक प्रगतिवादी आंदोलन परवान नहीं चढ़ा था. फिर भी इस कविता की प्रगतिवादी व्याख्याएँ अधिक हुईं. यह बात नजरअंदाज कर दी गई कि इस तरह के शब्दचित्र निराला पहले भी गढ़ चुके थे- जैसे, 1923 में 'भिक्षुक'. किसी ने इस कविता में पराधीन भारत की व्यथा का स्पर्श देखा तो किसी ने निराला के व्यक्तिगत जीवन की निराशाओं की छाया देखी. हाल मे आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने इस कविता की पुनर्व्याख्या का प्रस्ताव किया है. उनके सोच की दिशा इस उद्धरण से समझ में आ जायेगी --

" कमकर मज़दूर ही नहीं स्त्री दृश्य में है, इसलिए गाहे बगाहे उसका श्याम तन, सुघर कंपन, भर बँधा यौवन भी दिख जाता है, जो इस आकर्षण को और बढ़ा देता है. इस तरह सौंदर्यशास्त्र का सौंदर्य पक्ष पूरा हुआ. इसके बाद कवि ने 'लांग व्यू' से दृश्य में शहर की अट्टालिका को भी ले लिया और उस पर गुरु हथौड़ा चला दिया. इससे वर्ग-संघर्ष का प्रतिफलन संपन्न होकर प्रगतिशील विचार और प्रतिबद्धता संपन्न हुए....अब यह जानने की परवाह किसे है कि वह कमकर स्त्री उस दौरान क्या सोच रही थी. "

एक बात व्याख्याओं में अभिन्न है - कविता के शब्दों से गुज़रने की कोशिश किसी ने नहीं की, या की तो दिखता नहीं है. दिखता कुछ ऐसा है - 'प्रगतिशील कविता है तो उसके ये मायने होते हैं', या 'शब्दचित्र है तो इसे छायावादी काव्य का विस्तार मान लेते हैं' या ' चलो, निराला -जो वस्तुत: प्रतिगामी ब्राह्मण था - का मूर्तिभंजन करते हैं'.

जब कविता लिखी गई थी तब निराला संभवत: लखनऊ में रह रहे थे. कोई चाहे तो इस बात पर भी शोध कर सकता है कि लखनऊ छोड़कर इलाहाबाद के पथ पर क्यों. मैं तो मानकर चल रहा हूँ कि सचमुच इलाहाबाद की किसी सड़क के किनारे पत्थर तोड़कर गिट्टी बनाती मज़दूर औरत को देखा होगा. फिर भी कवि को सीधे दर्शक/वक्ता न बनाकर मैं एक काव्यात्मक वक्ता की कल्पना कर रहा हूँ जिसका अपना व्यक्तित्व भी कविता में ध्वनित हुआ है .

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