Hindi, asked by simmi6426, 1 year ago

, त्योहार बनाम बाजारवाद (तात्पर्य, बाजार का वास्तविक रूप, बाजार का प्रभाव) निबंध लिखिए... Please help............. ​

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Answered by shishir303
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त्योहार भारतीय संस्कृति की पहचान हैं। हमारे सभी त्योहार सांस्कृतिक रूप से अत्यन्त समृद्ध हैं। दुर्भाग्य से हम अपने त्योहारों को भूलते जा रहे हैं और हमारे त्योहारों पर बाजारवाद पूरी तरह से हावी हो गया है।

सभी भारतीय त्योहार किसी न किसी आस्था या घटनाक्रम से जुड़े हुये हैं और उस विशेष कालखंड में घटित हुई उस घटना की अच्छाईयों को याद करते हुये उसका अनुसरण करने और बुराईयों के याद करते हुये उस मार्ग पर न चलने के लिये कोई त्योहार मनाते हैं।

उदाहरण के लिये दशहरेका त्योहार भगवान राम की रावण पर विजय अर्थात अच्छाई की बुराई पर जीत का प्रतीक है। दीपावली का त्योहार भगवान राम का विजयी होकर 14 वर्षों के वनवास के बाद अपने राज्य में लौटने पर मनाई का खुशी का प्रतीक है। होली का त्योहार हिरण्यकशिपु के प्रह्ललाद पर किये गये अत्याचार के विरोध का प्रतीक है।

हर त्योहार के साथ कोई न कोई भावना जुड़ी है और उस हर वर्ष हम उस त्योहार को मनाकर उस भावना को प्रकट करते हैं।

पर आज बाजारवाद के इस युग में त्योहारों की मूल भावना गायब होती जा रही है। केवल दिखावा और पाखंड की भरमार होती जा रही है।

पहले दीवाली मनाते थे तो शुद्ध घी के दिये जलाते थे जिससे वाातावरण शुद्ध होता था। अपने घर पर ही बनी शुद्ध मिठाईयां खाते थे। ज्यादा धूम-धड़ाके वाले पटाखे न जलाकर हल्के-फुल्के पटाखे जलाते थे जिससे प्रदूषण कम होता था। घर के सब लोग हँसी-खुशी एक-दूसरे के साथ मिलकर दीवाली मनाते थे। अब तो दीवाली का स्वरूप ही बिगड़ गया है और उसका स्थान दिखावे की प्रतिस्पर्धा ने लिया है। घर की बनी शुद्ध मिठाईयों की जगह बाजार की बनी महंगी आधुनिक मिलावटी मिठाईयों और चाकलेट्स ने ले ली है। आतिशबाजी का प्रदर्शन दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा जिसके कारण प्रदूषण का स्तर भयानक हो चला है। मजबूरन अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा है। दीयों का स्थान महंगी लड़ियों और बल्बों ने ले लिया है।

पहले लोग त्योहारों की शुभकामनायें अपने मित्र-संबंधी के घर पर स्वयं जाकर और गले मिलकर देते थे। अब बाजारवाद के कारण पहले तो इसका स्थान बड़े और महंगे ग्रीटिंग कार्डस ने लिया फिर इंटरनेट और स्मार्टफोन के आगमन ने चार लाइनों के संदेश तक सीमित कर दिया है।

आज कुछ वर्ष पूर्व तक त्योहार उसकी मूल-भावना के साथ सरल और सादगी पूर्वक प्रेम और हर्षोल्लास से मनाये जाते थे।

अब त्योहारों में वो मूल-भावना, सरलता और सादगी गायब हो चुकी है। चाहे वो दीपावली के त्योहार में मंहगी आतिशबाजी को जलाना हो, महंगी और ड्रायफ्रूट्स वाली चाकलेट्स या मिठाईयां एक-दूसरे को भेजने की होड़ हो, दीयों की जगह बड़े-बड़े बल्बों से घर को प्रकाशित करने का दिखावा हो।

गणपति के महोत्सव में भी यही देखा जाता है कि बाजारवाद के कारण गणपति महोत्सव के आयोजक मंडलों में अधिक से अधिक दिखावे की होड़ लगी रहती है।

दही-हंडी उत्सव में किसकी दही हंडी ज्यादा ऊंची है और किस पर इनाम ज्यादा है इस बात पर लोगों का ध्यान ज्यादा रहता है।

अन्य त्योहारों के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है कि हम त्योहार की मूल-भावना को भूलकर बाजारवाद की चपेट में गये हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों को अपने उत्पाद बेचने हैं और उनके द्वारा किये गये आक्रामक व आकर्षक प्रचार के कारण हम उनके उत्पादों की ओर खिंचे चले आते हैं और त्योहारो को पारंपरिक स्वरूप में न मनाकर बाजारवादी, उपभोक्ताकेन्द्रित जाल में फँसकर गैर-पारंपरिक स्वरूप में त्योहारों को मनाने लगे हैं।


anshgarg93: Thank very much
Answered by bhimsingh941628
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