तभी उसकी नजर घड़ी की ओर गई। घड़ी में दोपहर के बाहर बजे थे। उसे ध्यान आया कि यदि वह मेरठ
में होती तो इस समय वह कत्थक नृत्य का अभ्यास कर रही होती। सबसे पहला कार्यक्रम मीनू का कत्थक-नृत्य
ही था। परन्तु समय को कौन जान सकता
तभी मीनू की छोटी बहन आशा कमरे में आयी और बोली, "दीदी, अब यहां पर मैं बैठती हूं। आप खाना
खा लीजिए। आपको मां बुला रही हैं।"
यद्यपि मीनू की खाने-पीने की इच्छा बिलकुल नहीं थी। परन्तु मां ने बुलाया था, इसलिए मीनू को जाना पड़ा।
"मां, मुझे बिलकुल भूख नहीं है।" कहकर मीनू ने टालने की कोशिश की। मां समझ गयीं कि पिताजी की
ऐसी हालत देखकर मीनू की भूख उड़ गयी है। जिस दिन उनकी तबीयत खराब हुई थी, उस दिन तो सभी की भूख
मर गयी थी। रसोई में खाना ही नहीं बना था। किसी ने कुछ भी नहीं खाया था।
मां ने मीनू को समझाते हुए कहा, “बेटी, खाना खा लो। खाना नहीं खाओगी तो पिताजी की सेवा कैसे कर
पाओगी। रात-दिन जागना होता है उनके साथ।"
'अच्छा मां, थोड़ा-सा दे दो।" कहकर मीनू ने बिना भूख के ही थोड़ा-सा खाना खा लिया और फिर
पिताजी के पास जाकर बैठ गयी।
लगभग एक सप्ताह यही क्रम चलता रहा। हर समय एक व्यक्ति उनके पास बैठा रहता। कभी मां तो कभी
मीनू, कभी रोहित तो कभी आशा। उन सबकी सेवा व ईश्वर के आशीर्वाद से पिताजी की दशा में काफी सुधार हो
गया। अब वे धीरे-धीरे अपने आप बैठने भी लगे थे। और थोड़ी देर बातें भी कर लेते थे।
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Sahi Baat hai pita puri umar baccho ke liye nikalta hai
to baccho ka bhi kartavya hai ki ve bhi pita ki mushkil khadi me unke saath khade rhe
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