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सामान की ढुलाई बैलजाड़ियां, घोड़ों, ऊंटों आदि से होती थी। सामान को लाने – ले – जाने के यही साधन थे। एक आदमी ऊंट से सामान लाने – ले – जाने का काम करता था। कभी वह खलिहानों से अनाज बाज़ार में ले जाता था। कभी सामान को एक स्थान से दुसरे स्थान पर ले जाता था। कभी यदि उसे रिश्तेदारों में जाना होता था, तो वह ऊंट को सवारी के रूप में इस्तेमाल कर लेता था।
जब ऊंट सामान से लदा चलता था, तो वह गर्दन उठाकर दूर – दूर तक देखता। ऊंट आगे ही नही बल्कि अपनी गर्दन घुमा – घुमाकर चारों तरफ देखता। ऊंट हमेशा सोचता कि मेरे से ऊँचा संसार में कोई नही है। मैं दूर- दूर का नज़ारा देख लेता हूँ। मैं पेड़ों की फुनगियों को तोड़कर खा लेता हूँ। इसी घमंड में वह अपनी जीभ निकालर बलबल की तेज आवाज करता था। ऊंट तब ही बलबलाता था जब वह पागलपन जैसा व्यवहार करता था या उसे अपने ऊपर बड़े होने का घमंड हो जाता था।
बलबलाते समय ऊंट कभी – कभी उंटबरिया को परेशान कर देता था। सामान लेकर इधर – उधर भागने लगता था। तब बड़ी मुश्किल से काबू में आता था ऊंट। उंटबरिया भी ऊंट की इन आदतों से परिचित था। इसलिए उंटबरिया परेशानी सहने का आदि हो गया था।
एक बार ऐसा समय आया कि उंटबरिया को सामान ढोने का काम नही मिल रहा था। खलिहानों से अनाज उठ चुके थे। घर का खर्च तो पूरा था ही। उसे घर चलाने में दिक्क्तें आने लगी। इसी बीच उसके पास एक ठेकेदार आया। उसे कई ऊंटों की जरूरत थी। लगभग २० – २५ दिन का काम था। उस उंटबरिया ने अपने आस – पास के गाँवों से चार ऊंट और करा दिए। कुछ कपडे और जरूरी सामान लेकर ठेकेदार के साथ चल दिया। अब वह उंटबरिया अपने साथियों के साथ उठता। तैयार हो सबके साथ काम पर पहुँच जाता। वह पहाड़ों से कटी लकड़ियाँ आदि अन्य सामग्री लाता और शहर से जरूरी सामान लादकर पहाड़ों में बसे गाँवों में ले जाता। सामान लाने – ले – जाने में ऊंटों को पहाड़ों के बीच में से गुजरना पड़ता। संकरा रास्ता होता और पहाड़ होते। साथ के उंटबरिया उसके ऊंट की आदत को जानते थे। वह ऊंट अपनी आदत से बाज नही आता था। उसका ऊंट चलते समय दोनों ओर देखता। ऊंट को दोनों ओर बहुत ऊँची दीवार – सी दिखाई देती। ऊंट पूरी तरह से ऊँची गर्दन करता लेकिन अब उसे दूर – दूर के खेत – खलिहान दिखाई न देते ओर न गाँव – घर। जब वह ऊंट अपना मुह बिल्कुल ऊपर करता – तब कहीं आकाश – भर दिखाई देता।
पेड़ ऊंचाई पर और इतने ऊँचे – ऊँचे थे कि उसका मुह उनकी फुनगियों तक पहुंचना तो दूर, उसकी नीचे की पत्तियों तक नही पहुँच पा रहा था। इधर – उधर भागने के लिए खेतों जैसा मैदान नही दिखाई देता था। यहाँ आकर ऊंट का इधर – उधर भागना, दूर – दूर देखकर बलबलाना सब कुछ छूट गया था। अब वह सीढ़ी गर्दन किये सामने देखता चलता था। उसके ऊंट की वह स्तिथि देखकर उस उंटबरिया से दूसरा एक उंटबरिया बोला, “भैया, यहाँ तो तेरा ऊंट बिल्कुल सीधा चल रहा है। परेशान नही करता।” दूसरा उंटबरिया बोला, “भैया, यह बात नही है। बात यह है कि ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे‘। पहले इसे अपनी ऊंचाई का बड़ा घमंड था। यहाँ आकर इसे मालूम हुआ कि मुझसे भी ऊँचा और कोई है इस दुनिया में।”
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