प्र०5 - सभी के दुःख का कारण क्या है ? इसका निवारण कैसे हो सकता है ?
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अज्ञान, अशक्ति और अभाव, ये दुख के तीन कारण हैं. इन तीनों कारणों को जो जिस सीमा तक अपने आपसे दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन सकेगा. अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, वह तत्वज्ञान से अपरिचित होने के कारण उल्टा-पुल्टा सोचता है, और उल्टे काम करता है, तद्नुसार उलझनों में अधिक फंसता जाता है, और दुखी बनता है. स्वार्थ, लोभ, अहंकार, अनुदारता और क्रोध की भावनाएं मनुष्य को कर्तव्यच्युत करती हैं, और वह दूरदर्शिता को छोड़ कर क्षणिक क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है.
फलस्वरूप, उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते हैं. पापों का निश्चित परिणाम दुख है. दूसरी ओर, अज्ञान के कारण वह अपने, दूसरों की सांसारिक गतिविधियों के मूल हेतुओं को नहीं समझ पाता. फलस्वरूप, असंभव आशाएं, तृष्णाएं, कल्पनाएं किया करता है. इन उल्टे दृष्टिकोण के कारण मामूली-सी बातें उसे बड़ी दुखमय दिखाई देती हैं, जिसके कारण वह रोता-चिल्लाता रहता है. आत्मियों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार-चढ़ाव स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि जो मैं चाहता हूं, वही सदा होता रहे, कोई प्रतिकूल बात सामने आए ही नहीं. इस असंभव आशा के विपरीत घटनाएं जब भी घटित होती हैं, तभी वह रोता-चिल्लाता है.
तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती हैं, समीपस्थ सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है, यह भी दुख का हेतु है. इस प्रकार अनेक दुख मनुष्य को अज्ञान के कारण प्राप्त होते हैं. अशक्ति का अर्थ है- निर्बलता, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलताओं के कारण मनुष्य अपने स्वाभाविक, जन्मसिद्ध अधिकारों का भार अपने कंधे पर उठाने में समर्थ नहीं होता. फलस्वरूप, उसे उनसे वंचित रहना पड़ता है. बौद्धिक निर्बलता हो तो साहित्य, काव्य, दशर्न, मनन, चिंतन का रस प्राप्त नहीं हो सकता. आत्मिक निर्बलता हो तो सत्संग, प्रेम, भक्ति आदि का आत्मानंद दुर्लभ है. इतना ही नहीं, निर्बलों को मिटा डालने के लिए प्रकृति का ‘उत्तम की रक्षा’ सिद्धांत काम करता है. कमजोर को सताने और मिटाने के लिए अनेकों तथ्य प्रकट हो जाते हैं.
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