Hindi, asked by lakshmilakshmi92153, 7 months ago

'दिनकर'जी मानव को 'सृष्टि का श्रृंगार' क्यों मानते हैं?​

Answers

Answered by bhaktihbalwadkar
1

Explanation:

किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;

जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;

जो आप तो लड़ता नहीं,

कटवा किशोरों को मगर,

आश्वस्त होकर सोचता,

शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ?

और तब सम्मान से जाते गिने

नाम उनके, देश-मुख की लालिमा

है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;

देश की इज्जत बचाने के लिए

या चढा जिनने दिये निज लाल हैं ।

ईश जानें, देश का लज्जा विषय

तत्त्व है कोई कि केवल आवरण

उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का

जो कि जलती आ रही चिरकाल से

स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी

नायकों के पेट में जठराग्नि-सी ।

विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में

मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;

चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,

फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से ।

हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,

हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-

उपचार एक अमोघ है

अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का !

लड़ना उसे पड़ता मगर ।

औ' जीतने के बाद भी,

रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;

वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में

विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता ।

उस सत्य के आघात से

हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,

सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों ।

वह तिलमिला उठता, मगर,

है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है ।

सहसा हृदय को तोड़कर

कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-

'नर का बहाया रक्त, हे भगवान ! मैंने क्या किया

लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने ।

इस दंश क दुख भूल कर

होता समर-आरूढ फिर;

फिर मारता, मरता,

विजय पाकर बहाता अश्रु है ।

यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में

नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,

पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का

वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था ।

और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,

मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की

दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,

रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,

केश जो तेरह बरस से थे खुले ।

और जब पविकाय पाण्डव भीम ने

द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर

हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो

पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी ।

कौरवों का श्राद्ध करने के लिए

या कि रोने को चिता के सामने,

शेष जब था रह गया कोई नहीं

एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा ।

और जब,

तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से

घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में,

लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा,

लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,

जीवितों के कान पर मरता हुआ,

और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ-

'देख लो, बाहर महा सुनसान है

सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'

हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है,

कौन सुन समझे उसे ? सब लोग तो

अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से;

जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है ।

किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय में

एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल

बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा

मग्न चिन्तालीन अपने-आप में ।

"सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं

दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से !

मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;

हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग्य है।"

स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-

"ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं;

तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो,

किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं ।

"हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ

दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,

जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,

अर्थ जिसका अब न कोई याद है ।

"आ गये हम पार, तुम उस पार हो;

यह पराजय या कि जय किसकी हुई ?

व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का

अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"

हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा

लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में,

औ' युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा

एक रव मन का कि व्यापक शून्य का ।

'रक्त से सिंच कर समर की मेदिनी

हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,

और ऊपर रक्त की खर धार में

तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के ।

'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी

शेष क्या है ? व्यंग ही तो भग्य का ?

चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे

तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया ?

'सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे

चाहता था, शत्रुओं के साथ ही

उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में

व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर ।

'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,

उफ ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है ?

पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से

हो गया संहार पूरे देश का !

'द्रौपदी हो दिव्य-वस्त्रालंकृता,

और हम भोगें अहम्मय राज्य यह,

पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं

कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ !

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