दुर्लभ बंधु की पेटियों की कथा लिखो ?
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Answer: अनन्त : सचमुच न जाने मेरा जी इतना क्यों उदास रहता है, इससे मैं तो व्याकुल हो ही गया हूँ पर तुम कहते हो कि तुम लोग भी घबड़ा गए। हा, न जाने यह उदासी कैसी है, कहाँ से आई है और क्यों मेरे चित्त पर इसने ऐसा अधिकार कर लिया है? मेरी बुद्धि ऐसी अकुला रही है कि मैं अपने आपे से बाहर हुआ जाता हूँ।
सरल : आपका जी क्या यहाँ है, आपका चित्त तो वहाँ है जहाँ समुद्र में आप के सौदागरी के भारी जहाज बड़ी बड़ी पाल उड़ाए हुए धनमत्त लोगों की भाँति डगमगी चाल से चल रहे होंगे और वरुण देवता के विमान की भाँति झूमते और आस पास की छोटी छोटी नौकाओं की ओर दयादृष्टि से देखते आते होंगे और वे बेचारियाँ भी अपने छोटे-छोटे परों से उड़ती हुई और सिर झुका झुकाकर बारंबार उनको प्रणाम करती किसी तरह से लगी बुझी उनका अनुगम करती चली आती होंगी।
सलोने : महाराज! हम सच कहते हैं! जो हमारी इतनी जोखिम जहाज पर होती तो हमारा जी आठ पहर उसी में लगा रहता, प्रति क्षण तिनका उठाकर हम हवा का रुख देखा करते, रात दिन नकशा लिए सड़क, बन्दर और खाड़ियों को ताका करते और थोड़े से खटके में भी अपनी हानि के डर से घबड़ा जाते।
सलोने : मैं जानता हूँ कि आपको अपनी जोखों ही का सोच है।
अनन्त : इसका नहीं। मैं धन्यवाद करता हूँ कि मेरा माल कुछ एक ही जहाज पर नहीं लदा है, और न सबके सब एक ही ओर भेजे गए हैं, और न एक साल के घाटे नफे से मेरे व्यापार की इतिश्री है, इससे सौदागरी की जोखों के सबब से मैं इतना उदास नहीं हूँ।
सरल : तो कहीं किसी से आँख तो नहीं लगी है?
अनन्त : छिः छिः!
(बसन्त, लवंग और गिरीश आते हैं)
सलोने : लो गिरीश और लवंग के साथ आपके प्रियबंधु बसन्त आते हैं। अब हमारा प्रणाम लो। हम लोग आपको अपने से अच्छी मण्डली में छोड़ कर जाते हैं।
सरल : भाई यदि ये उत्तम मित्रगण न आ जाते तो मैं आपको अच्छी तरह प्रसन्न किये बिना कभी न जाता।
अनन्त : मेरे हिसाब तो तुम भी बहुत उत्तम मित्र हो। परन्तु तुम्हें किसी आवश्यक काम से जाना है इसी हेतु अवसर पाकर यह बात बनाई है।
सरल : प्रणाम महाशयो।
बसन्त : दोनों मित्रों को प्रणाम। कहो अब हम लोग फिर कब हँसे बोलेंगे। तुम लोग तो अब निरे अपरिचित हो गए। सचमुच क्या चले ही जाओगे।
सरल : हम लोग अवसर के समय फिर मिलेंगे।
(सरल और सलोने जाते हैं)
लवंग : मेरे श्रीमन्त बसन्त लीजिए आपसे और अनन्त गुणकन्त अनन्त से भेंट हो गई अब हम लोग भी जाते हैं, परन्तु खाने के समय जहाँ मिलने का निश्चय किया उसे न भूलिएगा।
बसन्त : नहीं, न भूलूँगा।
गिरीश : भाई अनन्त। आप उदास मालूम पड़ते हो। हुआ ही चाहैं। संसार के कामों में जो जितना विशेष फँसा रहेगा उतना ही विशेष वह उदास रहेगा। मैं सच कहता हूँ कि आपकी सूरत बिलकुल बदल गई है।
अनन्त : मैं संसार को उसके वास्तविक रूप से बढ़कर कदापि नहीं समझता। गिरीश! संसार एक रंगशाला है, जहाँ सब मनुष्यों को एक न एक स्वाँग अवश्यक बनना पड़ता है उनमें से उदासी का नाट्य मेरे हिस्से है।
लवंग : तो खाने के समय तक के लिए जाता हूँ। परन्तु मैं तो उन्हीं गूंगे बुद्धिमानों में से एक हूँ, क्योंकि गिरीश अपनी बकवाद में मुझे तो कभी बोलने ही नहीं देता।
गिरीश : अभी दो बरस मेरी संगति में और रहो तो फिर तुम्हारी जिह्ना का शब्द तुम्हारे कान को भी न सुनाई पड़ेगा।
अनन्त : अच्छा जाओ, मैं भी तब तक बकवाद करना सीख रखता हूँ।
गिरीश : आप बड़ी कृपा कीजिएगा क्योंकि चुप रहने का स्वभाव यों तो पशुओं के लिये योग्य होता है या ऐसी स्त्रियों के लिये जिसे ब्याह करने वाला न मिलता हो।
(गिरीश और लवंग जाते हैं)
अनन्त : कहो भाई इनकी बात में कोई आनन्द था?
अनन्त : हुआ, यह रामकहानी दूर करो। अब यह बतलाओ कि वह कौन सी स्त्री है, जिसके लिये तुम गुप्त यात्रा करने वाले हो। देखो, आज मुझसे सब वृत्तान्त कहने का वादा है।
अनन्त : प्यारे वसन्त! परमेश्वर के वास्ते मुझसे सब वृत्तान्त स्पष्ट वर्णन करो। यदि वह उपाय धर्म का है जैसा कि तुम सदा बरतते आए हो तो निश्चय रक्खो कि मेरा रुपया मेरा शरीर सब कुछ तुम्हारे लिए समर्पण है।
अनन्त : भाई तुम तो मुझे अच्छी तरह जानते हो। फिर मेरा जी टटोलने के लिये फेरवट के साथ बात करके व्यर्थ क्यों समय नष्ट करते हो। मुझे इसका दुःख है कि तुमने इस बात में सन्देह किया कि मैं तुम्हारे लिए प्राण दे सकता हूँ। यदि तुम मेरी सर्वस्व हानि किए होते तब भी मुझे इतना दुःख न होता जो इस बात से हुआ। व्यर्थ बात बढ़ाने से क्या लाभ? केवल इतना कहो कि मुझे तुम्हारे हेतु क्या करना होगा, मैं उसके लिये प्रस्तुत हूँ शीघ्र बतलाओ।
अनन्त : भाई तुम अच्छी तरह जानते हो कि मेरी सब लक्ष्मी समुद्र में है, इस समय न मेरे पास मुद्रा है न माल जिसे बेच कर रुपया मिल सके, इससे जाओ देखो तो मेरी साक वंशनगर में क्या कर सकती है। तुम्हें पुरश्री के पास विल्वमठ जाने के लिए जो रुपया चाहिए उसके प्रबन्ध में मैं ऊँचा नीचा सब काम करने को प्रस्तुत हूँ। देखो अभी जाकर खोज करो कि रुपया कहाँ मिलता है और मैं भी जाता हूँ मेरे नाम या जमानत से जिस प्रकार रुपया मिले मुझे किसी बात में सोच विचार नहीं है।
(दोनों जाते हैं)
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दुर्लभ बंधु की पेटियों की कथा लिखो
Explanation:
दुर्लभ बंधु एक नाटक है। इसका पात्र पुरश्री है। उसके सामने तीन पेटियाँ रख दी जाती हैं। प्रत्येक पेटी अलग-अलग धातु की बनी होती है। इसमें से एक सोना, दूसरी चाँदी तथा तीसरी लोहे से बनी होती है। प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वतंत्रता है कि वह अपनी मनपसंद पेटी को चूने। अकड़बाज़ नामक व्यक्ति सोने की पेटी को चुनता है तथा वह खाली हाथ वापस जाता है। एक अन्य व्यक्ति चाँदी की पेटी चुनता है और लोभ के कारण उसे भी लौटना पड़ता है। इसके विपरीत जो सच्चा और परिश्रमी होता है, वह लोहे की पेटी चुनता है। इसके फलस्वरूप उसे घुड़दौड़ में प्रथम पुरस्कार प्राप्त होता है।
भारतेंदु हरिश्चंद के अनुवादित नाटक ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ रखी हुई थीं जिसमें एक सोने की दूसरी चाँदी की तथा तीसरी लोहे की बनी हुई थी| इस तीनों में से एक पेटी में वधू की प्रतिमूर्ति थी |
स्वयंवर के लिए जो आता उसे इन तीनों में से एक पेटी चुनने को कहा जाता है| अकड़बाज़ सोने की पेटी चुनता है और वापस लौट जाता है| लोभी चाँदी की पेटी चुनता है जबकि सच्चा प्रेमी प्रेमी लोहे की पेटी चुनकर घुड़दौड़ का पहला इनाम पाता है|
दुर्लभ बंधु की पेटियों की कथा लिखो ?
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