दूसरे दिन हम घोड़ों पर सवार होकर ऊपर की ओर चले। डाँड़े से पहिले एक
जगह चाय पी और दोपहर के वक्त डाँड़े के ऊपर जा पहुँचे। हम समुद्रतल से
17-18 हज़ार फीट ऊँचे खड़े थे। हमारी दक्खिन तरफ़ पूरब से पच्चिन की ओर
हिमालय के हजारों श्वेत शिखर चले गए थे। भोटे की ओर दोखने वाले पहाड़
बिलकुल
नंगे थे. न वहाँ बरफ़ की सफ़ेदी थी. न किसी तरह की हरियाली। उत्तर
की तरफ़ बहुत कम बरफ़ वाली चोटियाँ दिखाई पड़ती थीं। सर्वोच्च स्थान पर डाँड़े
के देवता का स्थान था, जो पत्थरों के ढेर, जानवरों को सींगों और रंग-बिरंगे कपड़े
की झंडियों से सजाया गया था। अब हमें बराबर उतराई पर चलना था। चढ़ाई तो
कुछ दूर थोड़ी मुश्किल थी, लेकिन उतराई बिलकुल नहीं। शायद दो-एक और
सवार साथी हमारे साथ चल रहे थे। मेरा घोड़ा कुछ धीमे चलने लगा। मैंने समझा
कि चढ़ाई की थकावट के कारण ऐसा कर रहा है और उसे मारना नहीं चाहता था।
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