देव निर्देशन के सिद्धांत एवं प्रवृत्तियों के बारे में लिखिए
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nirdharshan
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मानव अपने जीवन काल में व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों ही पक्षों में अधिकतम विकास लाने के लिए सदैव सचेष्ट रहता है इसके लिये वह अपने आस पास के पर्यावरण को समझता है और अपनी सीमाओं व सम्भावनाओं, हितों व अनहितों गुणों व दोषों को तय कर लेता है। परन्तु जीवन की इस चेष्टा में कभी वे क्षण भी आते हैं जहॉ पर वह इन अद्भुत क्षमताओं का प्रदर्शन अपनी योग्यता के अनुरूप नहीं कर पाता है और तब वह इसके लिये दूसरे से सहयोग लेता है जिससे वह अपनी समस्या को समझ सके एवं अपनी क्षमता के योग्य समाधान निकाल सके। यह प्रयास सम्पूर्ण जीवन चलता है और यह जीवन के विविध पक्षों के साथ बदलता जाता है यही निर्देशन कहलाता है। यह आदिकाल से ही ‘सलाह’ के रूप में विद्यमान थी परन्तु बीसवीं सदी में इसका वर्तमान स्वरूप उभरा। निर्देशन का अर्थ स्पष्ट करने के लिये इसका समझना आवश्यक है। अनेक विद्वानों ने इसे एक विशिष्ट सेवा माना है और यह व्यक्ति को उसके जीवन के विविध पक्षों में सहयोग देने हेतु प्रयुक्त किया जाता है। यह वास्तव में निर्देशन कार्मिक द्वारा किसी व्यक्ति को उसकी समस्या को दृष्टिगत रखते हुये अनेक विकल्प बिन्दुओं से अवगत कराते हुये अपेक्षित राय व सहायता देने की प्रक्रिया है।