दीवार के पीछे खडा पेड चगर गया। वाक्य में रेखांककि पदर्ंध है
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पहाड़, पेड़, नदी, मकान, मन्दिर, एकान्त और रंग, अलग-अलग चीज़ें होने के बावजूद रहने वालों से इस कदर गहरे जुड़े हैं कि लोग, चीज़़ों के एक दूसरे से जुड़े होने के यथार्थ से ही अनजान हैं। जब-जब ललिताप्रसाद सोचते वह एक पहाड़ है, वह पहाड़ ही होता, समुद्र नहीं हो पाता।...
जब-जब वह सोचते- वह एक पहाड़ है, वह पहाड़ ही होता, समुद्र नहीं हो पाता। दूसरे लोग भी उसे देखते ही कह सकते थे ‘वह एक पहाड़ है।’
इतने दिनों में वह जान गए थे हर दिन गाँव के किनारे वह रहेगा, रहेगा बिलकुल एक पहाड़ की तरह ही। एक ही मुद्रा में पड़ा एक भीमकाय सुस्त अजगर। एक पक्षी की तरह उड़ कर वह कहीं और नहीं जा सकता था। किताब कहती है- ‘पहले पहाड़ उड़ते थे। बाद में जब उनके पंख इन्द्र ने काट दिये, वे जहाँ थे वहीं के वहीं रह गये।’
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