दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद प्रणाली के विरुद्ध संघर्ष के बारे में संक्षेप में बताइए ।
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दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले डच मूल के श्वेत नागरिकों की भाषा अफ़्रीकांस में 'एपार्थाइड' का शाब्दिक अर्थ है, पार्थक्य या अलहदापन। यही अभिव्यक्ति कुख्यात रंगभेदी अर्थों में 1948 के बाद उस समय इस्तेमाल की जाने लगी जब दक्षिण अफ़्रीका में हुए चुनावों में वहाँ की नैशनल पार्टी ने जीत हासिल की और प्रधानमंत्री डी.एफ़. मलन के नेतृत्व में कालों के ख़िलाफ़ और श्वेतांगों के पक्ष में रंगभेदी नीतियों को कानूनी और संस्थागत जामा पहना दिया गया। नैशनल पार्टी अफ़्रीकानेर समूहों और गुटों का एक गठजोड़ थी जिसका मकसद गोरों की नस्ली श्रेष्ठता के दम्भ पर आधारित नस्ली भेदभाव के कार्यक्रम पर अमल करना था। मलन द्वारा चुनाव के दौरान दिये गये नारे ने ही एपार्थाइड को रंगभेदी अर्थ प्रदान किये। रंगभेद के दार्शनिक और वैचारिक पक्षों के सूत्रीकरण की भूमिका बोअर (डच मूल) राष्ट्रवादी चिंतक हेनरिक वरवोर्ड ने निभायी। इसके बाद रंगभेद अगली आधी सदी तक दक्षिण अफ़्रीका के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन पर छा गया। उसने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को भी प्रभावित किया। नब्बे के दशक में अफ़्रीकन नैशनल कांग्रेस और नेलसन मंडेला के नेतृत्व में बहुसंख्यक अश्वेतों का लोकतांत्रिक शासन स्थापित होने के साथ ही रंगभेद का अंत हो गया।
दक्षिण अफ़्रीका के संदर्भ में नस्ली भेदभाव का इतिहास बहुत पुराना है। इसकी शुरुआत डच उपनिवेशवादियों द्वारा कैप टाउन को अपने रिफ्रेशमेंट स्टेशन के रूप में स्थापित करने से मानी जाती है। एशिया में उपनिवेश कायम करने के लिए डच उपनिवेशवादी इसी रास्ते से जाते थे। इसी दौरान इस क्षेत्र की अफ़्रीकी आबादी के बीच रहने वाले युरोपियनों ने ख़ुद को काले अफ़्रीकियों के हुक्मरानों की तरह देखना शुरू किया। शासकों और शासितों के बीच श्रेष्ठता और निम्नता का भेद करने के लिए कालों को युरोपियनों से हाथ भर दूर रखने का आग्रह पनपना ज़रूरी था। परिस्थिति का विरोधाभास यह था कि गोरे युरोपियन मालिकों के जीवन में कालों की अंतरंग उपस्थिति भी थी। इसी अंतरंगता के परिणामस्वरूप एक मिली-जुली नस्ल की रचना हुई जो ‘अश्वेत’ कहलाए।
हालाँकि रंगभेदी कानून 1948 में बना, पर दक्षिण अफ़्रीका की गोरी सरकारें कालों के ख़िलाफ़ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाना जारी रखे हुए थीं। कुल आबादी के तीन-चौथाई काले थे और अर्थव्यवस्था उन्हीं के श्रम पर आधारित थी। लेकिन सारी सुविधाएँ मुट्ठी भर गोरे श्रमिकों को मिलती थीं। सत्तर फ़ीसदी ज़मीन भी गोरों के कब्ज़े के लिए सुरक्षित थी। इस भेदभाव ने उन्नीसवीं सदी में एक नया रूप ग्रहण कर लिया जब दक्षिण अफ़्रीका में सोने और हीरों के भण्डार होने की जानकारी मिली। ब्रिटिश और डच उपनिवेशवादियों के सामने स्पष्ट हो गया कि दक्षिण अफ़्रीका की ख़ानों पर कब्ज़ा करना कितना ज़रूरी है। सामाजिक और आर्थिक संघर्ष की व्याख्या आर्थिक पहलुओं की रोशनी में की जाने लगी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध की दक्षिण अफ़्रीकी राजनीति का मुख्य संदर्भ यही था।
इसी दौर में ब्रिटेन ने अफ़्रीका महाद्वीप के दक्षिणी हिस्से में डच मूल के बोअर गणराज्यों के साथ महासंघ बनाने की विफल कोशिश की। इसके बाद दक्षिण अफ़्रीकी गणराज्य के मुकाबले अंग्रेज़ों को अपने पहले युद्ध में पराजय नसीब हुई। विटवाटर्सरेंड में जर्मन और ब्रिटिश पूँजी द्वारा संयुक्त रूप से किये जाने वाले सोने के खनन ने स्थिति को और गम्भीर कर दिया। ये पूँजीपति गणराज्य के राष्ट्रपति पॉल क्रूगर की नीतियों के दायरे में काम करने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें खनन में इस्तेमाल किये जाने वाले डायनामाइट पर टैक्स देना पड़ता था। क्रूगर का यह भी मानना था कि इन विदेशी ख़ान मालिकों और उनके खनिज कैम्पों के प्रदूषण से बोअर समाज को बचाया जाना चाहिए। उधर खनन में निवेश करने वाले और कैप कॉलोनी के प्रधानमंत्री रह चुके सेसिल रोड्स और उनके सहयोगियों का मकसद ब्रिटिश प्रभाव का विस्तार करना था। इस प्रतियोगिता के गर्भ से जो युद्ध निकला उसे बोअर वार के नाम से जाना जाता है। 1899 से 1902 तक जारी रहे इस युद्ध के दोनों पक्ष रंगभेद समर्थक युरोपियन थे, लेकिन दोनों पक्षों की तोपों में चारे की तरह काले सिपाहियों को भरा जा रहा था। कालों और उनके राजनीतिक नेतृत्व को उम्मीद थी कि बोअर युद्ध का परिणाम उनके लिए राजनीतिक रियायतों में निकलेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेज़ों और डचों ने बाद में आपस में संधि कर ली और मिल-जुल कर रंगभेदी शासन को कायम रखा।
1911 तक ब्रिटिश उपनिवेशवाद दक्षिण अफ़्रीका में पूरी तरह पराजित हो गया, लेकिन कालों को कोई इंसाफ़ नहीं मिला। 1912 में साउथ अफ़्रीकन यूनियन के गठन की प्रतिक्रिया में अफ़्रीकी नैशनल कांग्रेस (एएनसी) की स्थापना हुई जिसका मकसद उदारतावाद, बहुसांस्कृतिकता और अहिंसा के उसूलों के आधार पर कालों की मुक्ति का संघर्ष चलाना था। मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे कालों के हाथ में इस संगठन की बागडोर थी। इसे शुरू में कोई ख़ास लोकप्रियता नहीं मिली, पर चालीस के दशक में इसका आधार विस्तृत होना शुरू हुआ। एएनसी ने 1943 में अपनी युवा शाखा बनायी जिसका नेतृत्व नेलसन मंडेला और ओलिवल टाम्बो को मिला। यूथ लीग ने रैडिकल जन-कार्रवाई का कार्यक्रम लेते हुए वामपंथी रुझान अख्तियार किया।
Explanation:
- सन 1948 में दक्षिण अफ्रीका में सरकार द्वारा गोरे और काले लोगों के लिए विधान बनाया गया l इसे रंगभेद नीति कहते हैं l
- काले लोगों को गोरे लोगों की शेत्र में आने से वंचित कर दिया गया था l सभी सार्वजनिक स्थान गोरे लोग के लिए अलग थे l
- काले दक्षिण अफ्रीकी गरीब कस्बों में रहने के लिए मजबूर थे इस विचार के आधार पर की दक्षिण अफ्रीका गोरे लोगों का है l
- काले लोगों को नौकरी का नहीं मिलती थी और उनसे बहुत दुर्शत व्यवहार किया जाता था l
- नेल्सन मंडेला ने रंगभेद के विरुद्ध काफी संघर्ष किया जिसके लिए उन्हें काफी वक्त जेल में व्यतीत करना पड़ा l
नेल्सन मंडेला ने रंगभेद के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी और 1992 में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद संबंधी जनमत संग्रह हुआ l