"दया ही धर्म है" विषय पर 100 - 150 शब्दों में अनुछेद लिखो।
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Secondary SchoolHindi 5+3 pts
Essay on दया - धर्म का मूल हैं (200 words)
Report by DiyanaN 04.07.2017
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vaibhav20041
Vaibhav20041 Virtuoso
दया एक दैवी गुण है। इसका आचरण करके मनुष्य देवत्व प्राप्त कर सकता है। दयालु हृदय में परमात्मा का प्रकाश ही प्रस्फुटित हो उठता है। क्योंकि भगवान स्वयं दयास्वरूप है। दयालु हृदय में ही उसका निवास होता है। दया के आचरण से मनुष्य में अन्य दैवी गुण स्वतः ही पैदा होने लगते हैं। महर्षि व्यास ने लिखा है ‘सर्वप्राणियों के प्रति दया का भाव रखना ईश्वर तक पहुँचने का सबसे सरल मार्ग है।’ महात्मा गाँधी ने कहा था ‘दया और सत्य का अन्योन्याश्रित संबंध है। जहाँ दया नहीं वहाँ सत्य नहीं।’ विदेशी विचारक होम ने लिखा है जो दूसरों पर दया नहीं करता उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती।
दया अपने आप में प्रसन्नता, प्रफुल्लता का मधुर झरना है। जिस हृदय में दया निरन्तर निर्झरित होती रहती है वहीं स्वयंसेवी आह्लाद, आनन्द के मधुर स्वर निनादित होते रहते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि दयालु व्यक्ति सहज आत्मसुख से सराबोर रहता है।
दया की शक्ति अपार है। सेना और शस्त्रबल से तो किसी राज्य पर अस्थायी विजय मिलती है। किन्तु दया से स्थायी और अलौकिक विजय मिलती है। दयालु व्यक्ति मनुष्यों को ही नहीं अन्य प्राणियों को भी जीत लेता है। सर्व हितचिन्तक दयालु व्यक्ति से सभी प्राणियों का भय, अहित की आशंका दूर हो जाती है। उसके सान्निध्य में सभी प्राणी अपने आपको सुरक्षित और निश्चिन्त समझते हैं। ऋषि आश्रमों के उपाख्यानों से मालूम होता है कि वहाँ सभी प्राणी निर्भय होकर विचरण करते थे। ऋषियों के बालक उनके साथ खेलते थे। इतना ही नहीं हिंसक पशु भी अपनी हिंसा भूलकर अन्य अहिंसक पशुओं के साथ विचरण करते थे। ऐसी है दया की शक्ति। दयालु ऋषियों के निवास से आश्रमों का वातावरण हिंसा, क्रूरता अन्याय द्वेष आदि से पूर्णतः मुक्त होता था।
दया से दूसरों का विश्वास जीता जाता है। यह प्राणियों के हृदय पर प्रभाव डालती है। दया समाज में परस्पर की सुरक्षा और सौहार्द की गारंटी है, क्योंकि इसमें दूसरों के भले की भावना निहित होती है। जिस समाज में लोग एक दूसरे के प्रति दयालु होते हैं, परस्पर सहृदय और सहायक बनकर काम करते हैं वहाँ किसी तरह के विग्रह की संभावना नहीं रहती। विग्रह, अशान्ति, क्लेश वहीं निवास करते हैं जहाँ व्यवहार में क्रूरता है। क्रूरता अपना अन्त स्वयं ही कर लेती है। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप विभिन्न उपद्रव उठ खड़े होते हैं। दया से स्नेह, आत्मीयता आदि कोमल भावों का विकास होता है। दयालुता ही तो समाज को एकाकार करती है।
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