धीरे धीरे उतर क्षितिज से आ वसन्त-रजनी! तारकमय नव वेणीबन्धन शीश-फूल कर शशि का नूतन, रश्मि-वलय सित घन-अवगुण्ठन, मुक्ताहल अभिराम बिछा दे चितवन से अपनी! पुलकती आ वसन्त-रजनी! मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि, अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि, भर पद-गति में अलस तरंगिणि, तरल रजत की धार बहा दे मृदु स्मित से सजनी! विहँसती आ वसन्त-रजनी!
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Isme kya krna hai
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