Hindi, asked by humairakhan21, 6 months ago

tibbat ki kaun kaun si baate lekhak Rahul samkrityayan ji ko acchi lagi​

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Answered by brainliestnp
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Answer:

अब तो मैं तीसरी बार तिब्बत में प्रवेश कर रहा था, इस रास्ते यह दूसरी बार जा रहा था। पहले प्रवेश में मुझे उतना ही कष्टों का सामना करना पड़ा था, जितना कि हनुमानजी को लंका-प्रवेश में।

21 अपैल को हम बहुत दूर नहीं गए। डाम गाँव के सामने तेजी गंग (रमइती) में रात के लिए ठहर गए। पहली यात्रा में हम कई दिनों के लिए डाम गाँव में ठहरे थे। अबकी गाँव से पहले पड़ने वाले लोहे के झूले को पार कर अभी सवेरा ही था, जबिक गाँव में पहुँच गए। यह लोहे का झूला सतयुग का कहा जाता है-जंजीरों का पुल है, और काफी लंबा होने की वजह से बीच में पहुँचने पर खूब हिलता है। अभयसिंहजी को पहले-पहल ऐसे पुल से वास्ता पड़ा था, इसलिए उनके पैर आगे नहीं बढ़ रहे थे। मैंने कहा-आँखें मूँद करके चले आओ। चला आना तो था ही, क्या लौट कर काठमांडू जाते? गाँव से पार होने लगे, तो हमें अपनी पहली यात्रा की सहायिका यल्मोवाली साधुनी अनीबुटी एक घर में बैठी हुई दिखाई पड़ीं। सात ही वर्ष तो हुए थे, उसने देखते ही पहचान लिया। वह और डुग्पा लामा का एक और शिष्य वहाँ थे। उनसे थोड़ी देर बातचीत हुई। पहली यात्रा में तो मैं तिब्बती भाषा नाममात्र की जानता था, लेकिन अब भाषा की कोई कठिनाई नहीं थी।

अब भोटकोशी के किनारे-किनारे कभी उसके एक तट पर कभी दूसरे तट पर आगे बढ़ाना था। रास्ते में कहीं भोजन किया और कहीं दूध पीने को मिला। तिब्बती भाषा-भाषी क्षेत्र में यात्री को ठहरने का कुछ सुभीता जरूर हो जाता है। वहाँ चौके-चूल्हे की छूत का सवाल नहीं है, न जनाने-मर्दाने का ही, इसलिए घर के चूल्हे पर जाकर आप अपनी रसोई बना सकते हैं। खाने-पीने की जो भी चीज घर में मौजूद है, उसे पैसे से खरीद सकते हैं, और बहुत कम ऐसे गृहपति मिलेंगे, जो ठहरने का स्थान रहने पर भी देने से इंकार करेंगे।

अप्रैल का अंतिम सप्ताह था। हम सात-आठ फुट की ऊँचाई पर चल रहे थे। यहाँ लाल, गुलाबी, और सफेद कई रंग के फूलों वाले गुरास (बुराँश) के पेड़ थे। बहुत से पेड़ तो आजकल अपने फूलों से ढके हुए थे। बुराँश को कोई-कोई अशोक भी कहते हैं, लेकिन यह हमारा देशी अशोक नहीं है। अंग्रेजी में बुराँश को रोडेंड्रन कहते हैं। एक वृक्ष तो अपने फूलों से ढका हुआ इतना सुंदर मालूम होता था, कि मैं थोड़ी देर उसके देखने के लिए ठहर गया। कैमरे से फोटो लिया, लेकिन फोटो में रंग कहाँ से आ सकता था? रास्ता चढ़ाई का था और बहुत कठोर था। उस दिन रात को छोकसुम में ठहरना था। यहाँ तक हमें भोटकोशी पर नौ बार पुल पार करना पड़ा। तातपानी अगर नेपाल के भीतर का तुप्त कुंड था, तो यह तिब्बत के भीतर का। हम छह बजे के करीब टिकान पर पहुँच गए, उस वक्त थोड़ी बूँदाबाँदी थी। नौ-दस हजार की ऊँचाई पर ऐसे मौसम, सरदी का अधिक होना स्वाभाविक ही था। मुफ्त का गरम पानी मिलता हो, तो मैं स्नान करने से कैसे रुक सकता था? लेकिन सरदी के मारे अभयसिंहजी ने तुप्त कुंड जाने की हिम्मत नहीं की।

ऐनम्

अभी हम जंगल और वनस्पति की भूमि में ही थे, लेकिन कुछ ही मीलों बाद उसका साथ चिरकाल के लिए छूटने वाला था। तातपानी से यहाँ तक, भोटकाशी के दोनों किनारों के पहाड़ हरे-भरे जंगलों से भरे थे, वृक्षों में छोटी बाँसी, बुराँश, बंज (बजराँठ, ओक) और देवदार जातीय वृक्ष बहुत थे। यहाँ का जंगल इसलिए भी सुरक्षित रह गया, क्योंकि यहाँ जनवृद्धि का डर नहीं है। तिब्बती लोगों में पांडव (सभी भाइयों का एक) विवाह होता है, एक पीढ़ी में दो भाई हैं, दूसरी में दस तो तीसरी पीढ़ी में फिर दो-तीन हो जाने की संभावना है, इस प्रकार न वहाँ घर बढ़ता है न खेत या संपति बँटती है। आदमियों के न

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