Hindi, asked by Techx, 10 months ago

Tyohar banam bazar vaad par nibandh in Hindi please help fastly

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Answered by bhatiamona
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Answer:

होली, दीवाली, ईद इत्यादि त्योहारों के आने से बाज़ार में एक अनोखा रूप देखने को मिलता है | आज के समय में तो वेलेन्टाइन डे की तरह नए तीज-त्योहार भी जुड़ गए है | बाज़ार में रोनक लगी रहती है |  व्यापर करने वाले तो तरह-तरह की चीज़े अपनी दुकानों में सजाते है ताकी लोग देख कर आकर्षित हो | हर त्यौहार के लिए अलग-अलग तरह से बाज़ार सजे होते है | हर साल कुछ नया देखने को मिलता है | त्यौहार के समय ही दुकान वालो की बिक्री होती है और उनका सारा सामान बिक जाता है | त्यौहार के समय बाज़ार में काफी भीड़ होती है मेला सा लगा रहता है | बाज़ार एक ऐसी जगह है जहाँ दोनों के बिच लेन-देन होता है | त्योहारों के समय बाज़ार जाने का मज़ा अलग है |

Answered by kirtisingh01
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Explanation:

हमारा देश उत्सवों का देश है। इसी कारण पूरे वर्ष भर किसी न किसी उत्सव- त्योहार को मनाने का अनुपम प्रवाह चलता रहता है। हर माह, हर ऋतु किसी न किसी त्योहार के आने का संदेसा लेकर आती है और आए भी क्यों न, हमारे ये त्योहार हमें जीवंत बनाते हैं, ऊर्जा का संचार करते हैं, उदास मनों में आशा जागृत करते हैं, अकेलेपन के बोझ को थोड़ी देर के लिए ही सही, कम करके साथ के सलोने अहसास से परिपूर्ण करते हैं। यह उत्सवधर्मिता ही तो है जो हमारे देश को अन्य की तुलना में एक अलग पहचान, अस्मिता प्रदान करती है।

     गते।

          होली, रक्षाबंधन, दिवाली, भैयादूज... इनकी रौनक़ तो देखते ही बनती थी। इनको मनाने के पुराने स्वरूप पर विचार करें तो त्योहारों की तैयारी कई दिनों पहले से ही हो जाती थी। गुझिया , मठरी, नमकपारे, मीठे पारे आदि बनाने के लिए सब मिल कर एक- एक दिन एक घर में जाकर बनवाते थे। रक्षाबंधन में सिवईं (हाथ से बनाए हुओं को जवें कहते हैं) भी इसी तरह सब मिल कर बनवाते थे। सुविधाओं की कमी थी, पर आपसी खुलापन, मेल-मिलाप अधिक था तो सब काम इसी तरह किए जाते। एक का मेहमान सबका होता, बेटियाँ सबकी होती, मायके आती तो सब मिलने आते, सब कुछ  कुछ न कुछ उसे अवश्य देते। यह उस समय की आवश्यकता भी थी। आज वो आत्मीयता भरा समय याद तो बहुत आता है, उस आत्मीयता की कमी भी अनुभव होती है 

बदलने लगा है त्योहारों का स्वरुप 

            पर अब समय बदल गया है। परिस्थितियाँ बदल गई हैं, आर्थिक स्थिति भी सबकी अच्छी ही नहीं, काफ़ी अच्छी है, सुविधाएँ भी सभी के पास हैं... तो रहन-सहन भी बदला है, तौर-तरीक़े भी बदले हैं, महत्वाकांक्षाओं के चलते सब काम कर रहे हैं, दिन-रात भाग रहें हैं, समय की कमी है। तकनीकी विकास ने भी हमें आती व्यस्त बनाया है। तो जब सब कुछ बदल रहा है तो त्योहारों को मनाने का पुराना स्वरूप भी बदलेगा ही। इसे हमें स्वीकार भी करना चाहिए।

              टी वी और फ़िल्मों ने हमारे त्योहारों को बहुत ग्लैमरस रूप दे दिया है। कुछ-कुछ उसी तरह नई पीढ़ी उन्हें मनाने की कोशिश भी करती  दिखाई देती है। इसका एक सकारात्मक पक्ष जो मुझे दिखता है वो ये कि काम से काम इस भागती-दौड़ती व्यस्त ज़िंदगी में वे अपने त्योहारों से परिचित तो हो रहें हैं। हम पुराने स्वरूप को याद तो अवश्य करें, कुछ पुराना साथ लेकर चलें और कुछ नया स्वरूप अपनाएँ...ये आज की बहुत बड़ी आवश्यकता भी है क्योंकि आज की पीढ़ी को अपने मूल्यों, संस्कारों, रीति-रिवाजों से परिचित भी तो करवाना है जो उनके साथ मिलकर चलने से ही  ही संभव होगा।

            पहले जन्मदिन पर हलवा बना कर, भगवान को भोग लगाने के बाद खिलाने-बाँटने का रिवाज था, अब उसकी जगह केक ने ले ली।तो क्या हुआ... सुबह हलवा बना कर पहले की तरह अपनी उस परंपरा को भी जी लें और बच्चों की ख़ुशी भी जी लें उनके साथ।

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