उन्नीसवीं सदी में भारत में गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का क्या असर हुआ?
Answers
उत्तर :
उन्नीसवीं सदी में भारत में गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का निम्न असर हुआ :
मुद्रण संस्कृति से देश की गरीब जनता अथवा मजदूर वर्ग को भी बहुत लाभ पहुंचा । पुस्तकें इतनी सस्ती हो गई थी कि चौक चौराहे पर बिकने लगी थी । गरीब मजदूर इन्हें आसानी से खरीद सकते थे । बीसवीं शताब्दी में सार्वजनिक पुस्तकालय भी खुलने लगे जिससे पुस्तकों की पहुंच और भी व्यापक हो गई।बेंगलुरु के सूती मिल मजदूरों ने स्वयं को शिक्षित करने के उद्देश्य से अपने पुस्तकालय स्थापित किए।इसकी प्रेरणा उन्हें मुंबई के मिल मजदूरों से मिली थी।
कुछ सुधारवादी लेखकों की पुस्तकों ने मजदूरों को जातीय भेदभाव के विरुद्ध संगठित किया। इन लेखकों ने मजदूरों के बीच साक्षरता लाने, नशाखोरी को कम करने तथा अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का बहुत प्रयास किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने मजदूरों तक राष्ट्रवाद का संदेश भी पहुंचाया। मजदूरों का हित साधने वाले लेखकों में ज्योतिबा फूले, भीमराव अंबेडकर, काशी बाबा के नाम लिए जा सकते हैं। काशी बाबा कानपुर के एक मिल मजदूर थे । उन्होंने 1938 में छोटे और बड़े सवाल छपवा कर जातीय तथा वर्गीय शोषण के बीच का रिश्ता संबंध समझाने का प्रयास किया। अनेक समाज सुधारकों ने भी कोशिश की कि मजदूरों के बीच नशाखोरी कम हो तथा साक्षरता दर बढ़े।
आशा है कि यह उत्तर आपकी मदद करेगा।।।।ं
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Answer:मुद्रण संस्कृति से देश की गरीब जनता अथवा मजदूर वर्ग को भी बहुत लाभ पहुंचा । पुस्तकें इतनी सस्ती हो गई थी कि चौक चौराहे पर बिकने लगी थी । गरीब मजदूर इन्हें आसानी से खरीद सकते थे । बीसवीं शताब्दी में सार्वजनिक पुस्तकालय भी खुलने लगे जिससे पुस्तकों की पहुंच और भी व्यापक हो गई।बेंगलुरु के सूती मिल मजदूरों ने स्वयं को शिक्षित करने के उद्देश्य से अपने पुस्तकालय स्थापित किए।इसकी प्रेरणा उन्हें मुंबई के मिल मजदूरों से मिली थी।
कुछ सुधारवादी लेखकों की पुस्तकों ने मजदूरों को जातीय भेदभाव के विरुद्ध संगठित किया। इन लेखकों ने मजदूरों के बीच साक्षरता लाने, नशाखोरी को कम करने तथा अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का बहुत प्रयास किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने मजदूरों तक राष्ट्रवाद का संदेश भी पहुंचाया। मजदूरों का हित साधने वाले लेखकों में ज्योतिबा फूले, भीमराव अंबेडकर, काशी बाबा के नाम लिए जा सकते हैं। काशी बाबा कानपुर के एक मिल मजदूर थे । उन्होंने 1938 में छोटे और बड़े सवाल छपवा कर जातीय तथा वर्गीय शोषण के बीच का रिश्ता संबंध समझाने का प्रयास किया। अनेक समाज सुधारकों ने भी कोशिश की कि मजदूरों के बीच नशाखोरी कम हो तथा साक्षरता दर बढ़े।