उन संगठनों के नाम लिखें जिन्होंने विधवाविवाह का समर्थन किया ।
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प्राचीन भारत के इतिहास में ब्राह्मण, उच्च राजपूत, महाजन, ढोली, चूड़ीगर तथा सांसी जातियों में विधवा विवाह वर्जित था। अन्य जातियों में विधवा विवाह प्रचलित थे। विधवा विवाह को "नाता' के नाम से पुकारा जाता था। विधवा को विवाह करने से पूर्व मृतक पति के घर वालों से "फारगती' (हिसाब का चुकाना) करना आवश्यक था। फारगती के लिए मालियों में 16 से 50 रुपये तक एवं भाटों में 50 रुपये देने का रिवाज था।
विधवा के द्वारा ऐसा न करने पर जाति पंचायत एवं सरकार द्वारा जुर्माना किया जाता था। उदाहरण स्वरूप कोटा के राजा मीना ने फारगती नहीं की थी, अत: सरकार ने उस पर 10 रुपये जुर्माना किया था। विधवा विवाह में भी धन का लेन-देन होता था। पेशेवर तथा निम्न जातियों की स्त्रियाँ पति के जीवित होते हुए भी धन के लालच में किसी अन्य से "नाते' चली जाती थी। नाते से जो संतान पैदा होती थी वो वैध समझी जाती थी।
वर्ष 1853 में हुए एक अनुमान के अनुसार कोलकाता में लगभग 12,718 वेश्याएं रहती थी। ईश्वर चंद्र विद्यासागर उनकी इस हालत को परिमार्जित करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहते थे। अक्षय कुमार दत्ता के सहयोग से ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह को हिंदू समाज में स्थान दिलवाने का कार्य प्रारंभ किया। उनके प्रयासों द्वारा 1856 में अंग्रेज़ी सरकार ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित कर इस अमानवीय मनुष्य प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की कोशिश की। ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने पुत्र का विवाह भी एक विधवा से ही किया था।