Hindi, asked by ramulupoliboyina, 10 months ago

upbhokta ki Sanskriti ke upar nibandh lekhan​

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Answered by Shra14
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Consumerist Culture Essay In Hindi

उपभोक्तावाद एक ऐसी आर्थिक प्रक्रिया है जिसका सीधा अर्थ समाज के भीतर व्याप्त प्रत्येक तत्व उपभोग करने योग्य हैं. उसे बस सही तरीके से जरुरी वस्तुओं के रूप बाजार में स्थापित करना है. उद्योगपति अपने निजी लाभ के लिए जो वस्तुए बाजार में बेचते हैं. उसके प्रति ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उनके मन में कृत्रिम इच्छाओं को जागृत करते हैं.

ग्राहक को महसूस होता है कि इस वस्तु के बिना तो उसका तो काम चल ही नहीं सकता. यही से अपव्ययपूर्ण उपभोग की शुरुआत हो जाती हैं. विकसित देशों में विश्व की एक चौथाई आबादी निवास करती हैं. किन्तु विश्व के कुल संसाधनों का तीन चौथाई उपभोग इन्ही के द्वारा किया जाता हैं.

उदहारण के लिए अमेरिका की जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का 5 प्रतिशत होते हुए भी विश्व के कुल पेट्रोलियम उत्पादों का 20 प्रतिशत व्यय अमेरिकी उपभोक्ता द्वारा किया जाता हैं. इसी तरह विकसित देशों में घरों, वाहनों में भी एयर कंडिशनरों प्रयोग सर्वाधिक हो रहा हैं. इन कारणों से ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती जा रही हैं.

कमोबेश सभी विकसित और विकासशील देशों की स्थिति अमेरिका जैसी ही हैं. पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में भारत सहित दुनिया के अन्य विकासशील देश आ चुके हैं. इस सोच को विकसित करने में विज्ञापनों की अहम भूमिका रही हैं. पिछले कुछ दशकों से आपूर्ति का अर्थशास्त्र की अवधारणा खूब चल रही हैं. कि माल बनाते रहो ग्राहक तो मिल ही जाएगे.

जहाँ ग्राहक तैयार नहीं है वहां विज्ञापनों द्वारा आकर्षण पैदा करके ग्राहक तैयार किये जाते हैं. अधिकाधिक औद्योगिक उत्पादन की इस होड़ में सरकारों व बैंकों का समर्थन भी मिल रहा हैं. निरंतर अनावश्यक खरीददारी से उपभोक्ता के पर्स, बैंक खाता, क्रेडिट कार्ड खाली होने के बाद आर्थिक संकट का शिकार हो रहे हैं.

साथ ही इन उत्पादों का जीवनकाल कम होता जा रहा हैं. इससे पुराना सामान शीघ्र अनुपयोगी हो जाता हैं. नया उत्पाद बिक्री के लिए आ जाता हैं. वर्तमान के मुकाबले एक उत्पाद का औसत जीवनकाल 1980 के दशक में तीन गुना अधिक होता था.

इसके साथ साथ उत्पादों की पैकिंग सामग्री व डिस्पोजेबल उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा मिलने से अपशिष्ट पदार्थों का निस्तारण दुनिया के समक्ष चुनौती बन गया हैं. इन उत्पादों को तैयार करने में प्राकृतिक संसाधनों खनिज, वन, पानी, ऊर्जा, स्रोतों का भरपूर दोहन हो रहा हैं.

यह प्रणाली प्रकृति के मूल्यवान व स्वास्थ्यप्रद स्रोतों को नष्ट करके वातावरण को प्रदूषित कर रही हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों का स्रजन नहीं किया जा सकता, उन्हें बढ़ाना तो असम्भव हैं. वर्तमान औद्योगिक विकास एक ऐसा व्यवसाय चला रहा हैं. पर्यावरण वादियों का मानना है कि किसी राष्ट्र के सकल राष्ट्रीय उत्पाद जी एन पी की गणना करते समय इन संसाधनों का भी हिसाब लगाया जाये जिन्हें औद्योगिक प्रनाली नष्ट कर रही हैं.

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