उदारवादी सिद्धांत का मूल तत्व क्या है
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I didn't understand of that question
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Explanation:उदारवाद शब्द का मूल आज़ादी या स्वतंत्रता है। दूसरे शब्दों में यहां केंद्र बिंदू व्यक्ति है। समाज व्यक्ति की मदद के लिए है और न कि व्यक्ति समाज के लिए जैसा कि साम्यवाद या समाजवाद जैसी व्यवस्थाएं परिभाषित करने की कोशिश करती हैं। उदारवाद के मूल तत्व व्यापक हैं और जीवन के हर पहलू को छूते हैं। जहां तक मनोभाव की बात है तो सहनशीलता, खासतौर पर असहमति को लेकर, ही इसका आधार है। मामला चाहे धार्मिक हो, सांप्रदायिक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय या फिर जाति या भाषाई समूह से ताल्लुक रखता हो, दूसरे के विचारों को लेकर सहनशीलता और इसे लेकर तर्क करने की तैयारी, उदारवाद का सार हैं।
जहां तक धर्म की बात है तो उदारवाद धर्मविरोधी नहीं है, लेकिन गैर-सांप्रदायिक और शायद नास्तिक भी है।
एक अच्छा उदारवादी सभी धर्मों पर वैसा हमला नहीं बोलता जैसा कि ‘धर्मनिरपेक्ष।’ एक अच्छा उदारवादी सभी धर्मों को लेकर सहनशील होगा और सबका एक समान सम्मान करेगा। एक लिहाज से, गांधीजी का धर्म को लेकर व्यवहार काफी उदारवादी था, उन लोगों की तुलना में जो खुद को ‘धर्मनिरपेक्ष’ कहते हैं और जो हर धर्म को दुर्भावनापूर्ण तरीके से ही देखते हैं। इस लिहाज से भारतीय संविधान बहुत उदारवादी है और सभी धर्मों और धार्मिक संस्थाओं को बराबरी की सम्मान की नजर से देखता है।
यथार्थवादः
उदारवाद का एक और आधारभूत गुण किसी वक्त विशेष पर हुई समस्या को लेकर उसकी यथार्थवादी सोच है। उदारवादी किसी भी समस्या को अड़ियल या पूर्वाग्रह भरे नजरिये से नहीं देखता। सभी मसलों को लेकर वह खुला दिमाग रखता है। इसलिए, उदाहरण के लिए, जहां तक समाजवादी लोकतंत्र की बात है, उदारवादी किसी देश, मामले या काल की परिस्थितियों को देखते हुए काफी हद तक सरकारी नियंत्रण को भी स्वीकार लेगा। इस सोच के रहते भी कि प्रतिस्पर्धा, उपभोक्ता की प्राथमिकता और बाजार के कानून का वर्चस्व होना चाहिए, उदारवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था की वास्तविक प्रकृति को लेकर लचीला व्यवहार अपनाएगा, जो कि उस स्थिति विशेष में जरुरी होगी।
अनेकवादः
उदारवादी मूलतः अनेकवाद में विश्वास रखता है, यानी वह किसी भी मत विशेष या पूर्वाग्रह या समाज के एक ही वर्ग के वर्चस्व को स्वीकार नहीं करता। उदारवादी के मकान में कई कमरे होते हैं, जिनमें हर किसी के लिए एक कमरा होता है। इसलिए उदारवादी एक अनेकवादी समाज में यकीन रखता है, जहां पर सरकार के विभिन्न अंगों के कामकाज पर निगरानी रखने के लिए, कार्यकारी, विधायी और न्यायिक तंत्र होते हैं। संघीय सरकार में भी निगरानी का तंत्र होता है जो संघीय सरकार और राज्य सरकार के बीच संतुलन साधता है। भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहुजातीय और बहुभाषीय देशों के मामलों में उदारवादी का ध्यान अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा में होता है। व्यक्ति और सरकार के बीच की लड़ाई में, नागरिकों के कुछ मूलभूत अधिकार होने चाहिए जिनके लिए वह कानून की अदालत की शरण ले सके। राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों पृथक्करण होना चाहिए। दूसरे शब्दों में उदारवादी सीमित सरकार में विश्वास रखता है। ‘सीजर की वस्तुएं सीजर को दें और भगवान की भगवान को, इस मामले में भगवान व्यक्ति की अंतकरण की आवाज है। उदारवादी कभी भी नियतीवादी नहीं होता। वह मार्क्सवादियों की तरह यह नहीं कहता कि ऐसा होकर ही रहेगा। वह इतना ही कह सकता है कि एक तार्किक विश्लेषण को देखकर लगता है कि अगर ऐसा हुआ तो वैसा होगा।