Hindi, asked by aahan3s, 5 months ago

उद्यम के महत्व से संबंधित एक कहानी संस्कृत में लिखें !
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Answered by sindhugorantla
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Answer:

न दैवमिति सञ्चिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः ।

अनुद्यमेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥

“नसीब है” एसा सोचकर इन्सान ने अपना उद्योग छोडना नहीं चाहिए । उद्यम के बिना तिल में से तेल कौन प्राप्त कर सकता है ?

तृणादपि लघुस्तूलः तूलादपि च याचकः ।

वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं प्राथयेदिति ॥

तिन्के से हल्का रु है, और रु से भी हल्का याचक है । पर, याचक को वायु क्यों नहीं खींच जाता ? (इस लिये कि उसे डर है) कहीं मुज से भी माग लेगा तो !

उत्साहसंपन्नमदीर्घसूत्रम् क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् ।

शूरं कृतज्ञं दृढसौहृदं च लक्ष्मीः स्वयं याति निवासहेतोः ॥

उत्साहपूर्ण, काम पीछे न टाल ने वाला (अदीर्घसूत्री), पद्धति से काम करने वाला, निर्व्यसनी, शूर, कृतज्ञ, और दृढ व स्वच्छ हृदय वाले के यहाँ लक्ष्मी स्वयं निवास करने आती है ।

षड्दोषा पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।

निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥

उन्नति की कामना करने वाले को निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य, और दीर्घसूत्रता (काम टालने की वृत्ति) का त्याग करना चाहिए ।

गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते पितृवंशो निरर्थकः ।

वासुदेवं नमस्यन्ति वसुदेवं न वै जनाः ॥

गुणों की ही सर्वत्र पूजा होती है, ना कि पितृवंश की ! लोग वासुदेव की पूजा करते हैं, न कि वसुदेव की ।

आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशृंखला ।

यया बद्धाःप्रधावन्ति मुक्तास्तिष्टन्ति पंगुवत् ॥

आशा मनुष्यों की आश्चर्यकारक बेडी है, जिससे बद्ध व्यक्ति दौडने लगता है और मुक्त व्यक्ति पंगुवत् स्थिर हो जाता है !

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्शो महारिपुः ।

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कुर्वाणो नावसीदति ॥

आलस्य इन्सान के शरीर का सबसे बडा शत्रु है । उद्योग जैसा साथी नहीं क्यों कि उद्योग करने वाले का नाश नहीं होता ।

श्रमेण लभ्यं सकलं न श्रमेण विना क्वचित् ।

सरलाङ्गुलि संघर्षात् न निर्याति घनं घृतम् ॥

श्रम से सब मिलता है, श्रम बिना कुछ नहि । सीधी उँगली से घी नहीं निकलता ।

शुभकार्ये विलम्बः स्यात् नाशुभे तु कदाचन ।

विलम्बो जायते गेहनिर्माणे न तु पातने ॥

शुभ कार्य में विलंब होता है, (पर) अशुभ कार्य में कभी विलंब नहि होता । घर बनाने में देर लगती है, पर गिराने में नहीं ।

प्रयत्न स्तादृशो नैव कार्यो येन फलं न हि ।

पर्वते कूपखननात् कथं तोयसमागमः ॥

ऐसा प्रयत्न नहीं करना चाहिए जिसका फल न मिले । पर्वत पर कूआ खोदने से पानी कैसे मिले ?

मन्दोऽपि सुज्ञतामेति अभ्यासकरणात् सदा ।

घर्षणात् सततं रज्जो रेखा भवति चोपले ॥

अभ्यास करने से मंद व्यक्ति भी सुज्ञ बनती है । रस्सी को सतत घिसने से पत्थर पर भी रेखा पड जाती है ।

उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् ।

शूरं कृतज्ञं दृढसौह्रदं च लक्ष्मीः स्वयं याति निवासहेतोः ॥

उत्साहसंपन्न, अविलंबी, क्रियाविधि के ज्ञाता, व्यसन से अलिप्त, शूर, कृतज्ञ, और दृढ मैत्रीवाले इन्सान के पास, लक्ष्मी अपने आप निवास करने के हेतु से जाती है ।

अश्वस्य लक्षणं वेगः मदो मातङ्ग लक्षणम् ।

चातुर्यं लक्षणं नार्याः उद्योगः पुरुष लक्षणम् ॥

घोडे का लक्षण वेग है, हाथी का कद, नारी की चतुराई, और पुरुष का लक्षण उद्योग है ।

उत्तमं स्वार्जितं द्रव्यं मध्यमं पितुरर्जितम् ।

कनिष्ठं भ्रातृवित्तं च स्त्रीवित्तं चाधमाधमम् ॥

स्वयं ने अर्जित किया हुआ द्रव्य उत्तम, पिता ने प्राप्त किया मध्यम, भाई ने प्राप्त किया हुआ कनिष्ठ, और स्त्री ने प्राप्त किया हुआ द्रव्य अधम में अधम है ।

अभ्यासेन क्रियाः सर्वाः अभ्यासात् सकलाः कलाः ।

अभ्यासात् ध्यानमौनादिः किमभ्यासस्य दुष्करम् ॥

अभ्यास से सब क्रिया होती है । अभ्यास से सब कला, ध्यान, मौन इ. होते हैं । अभ्यास से क्या दुष्कर है ?

त्याज्यं न धैर्यं विधुरेऽपि काले धैर्यात् कदाचिद्गतिमाप्नुयात् सः ।

यथा समुद्रेऽपि च पोतभङ्गे तां यात्रिको वाञ्छति तर्तुमेव ॥

संकट काल में भी धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिए । कदाचित् धैर्य से उसे गति मिले । समंदर में, नौका डूब जाने पर भी यात्रिक तैरने की इच्छा रखता है ।

उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् ।

सोत्साहस्य लोकेषु न किञ्चिदपि दुर्लभम् ॥

हे आर्य ! उत्साह बलवान है । उत्साह के सिवा अन्य कोई बल ननहीं । उत्साही मनुष्य को इस दुनिया में कुछ दुर्लभ नहीं।

काकतालीयवत्प्राप्तं दृष्ट्वापि निधिमग्रतः ।

न स्वयं दैवमादत्ते पुरुषार्थमपेक्षते ॥

काकतालीय न्याय से (संयोगवशात्) प्राप्त हुए खजाने को सामने देखकर, अपने आप दैव भी उसे नहीं लेता, पुरुषार्थ की अपेक्षा रखता है ।

यत्रोत्साहसमारम्भो यत्रालस्य विहीनता ।

नयविक्रम संयोगस्तत्र श्रीरचला ध्रुवम् ॥

जहाँ उत्साह से कार्य का आरंभ होता है, जहाँ आलस्य नहीं और जहाँ नीति और पराक्रम का संयोग है, वहाँ लक्ष्मी जरुर स्थिर रहती है ।

न कश्चिदपि जानाति किं कस्य श्वो भविष्यति ।

अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान् ॥

कल किसका क्या होनेवाला है, वह कोई इन्सान जानता नहीं । इस लिए कल करने वाले काम बुद्धिमान मनुष्य ने आज ही करने चाहिए ।

अलसस्य कुतो विद्या ह्यविद्यस्य कुतो धनम् ।

अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥

आलसी इन्सान को विद्या कहाँ से ? विद्याविहीन को धन कहाँ से ? धनविहीन को मित्र कहाँ से ? (और) मित्रविहीन को सुख कहाँ से ?

शरीरनिरपेक्षस्य दक्षस्य व्यवसायिनः ।

बुद्धि प्रारब्ध कार्यस्य नास्ति किञ्चन दुष्करम् ॥

शरीर-निरपेक्ष, दक्ष, व्यवसायी, और बुद्धिपूर्वक कार्य शुरु करने वाले को, कोई भी बात दुष्कर नहीं ।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः ।

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ॥

“आलस्य” इन्सान के शरीर में सबसे बडा शत्रु है, और जो करने से नाश नहीं होता उस “उद्यम” जैसा अन्य बंधु नहीं ।

वीरः सुधीः सुविद्यश्च पुरुषः पुरुषार्थवान् ।

तदन्ये पुरुषाकाराः पशवः पुच्छवर्जिताः ॥

वीर, सुबुद्धिमान, विद्यावान और पुरुषार्थ करने वाला हो, वही (सच्चा) पुरुष है । उसके अलावा अन्य, पुरुष के आकार में बिना पूंछ के पशु है ।

सिंहाः सत्पुरुषाश्चैव निजदर्पोपजीविनः ।

पराश्रयेण जीवन्ति कातराः शिशवः स्रियः ॥

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