विचार मंथन
॥ वृक्षवल्ली आम्हा सोयरे वनचरे ।। and in dhort
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वृक्षवल्ली आम्हा सोयरी वनचरे” इस अभंग का हिंदीमें भाषांतर/ अनुवाद। महाराष्ट्रके संतोंकी वाणी व्यापक स्तरपर पहुँचानेका मेरा एक प्रयास।
वृक्ष वल्ली आम्हां सोयरीं वनचरें ।
पक्षी ही सुस्वरें आळविती ।।
यह पेड़ लताएँ (बेल) और वनमें रहने वाले प्राणी (हमें) बहुत प्रिय हैं
पंछी भी बहुत मिठे सुरोंमें कूजन कर रहे हैं
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येणें सुखें रुचे एकांताचा वास ।
नाही गुण दोष अंगा येत ।।
जिसे ऐसे एकान्तमें रहने (वास करने) के सुखमें रुची है
उसे (दुनियादारीसे जुड़े/ निहीत स्वार्थसे युक्त ) गुण दोष (देखने) जैसे विचार छू भी नहीं सकते
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आकाश मंडप पृथुवी आसन ।
रमे तेथें मन क्रीडा करी ।।
(हम संतोंके लिए) आकाश छत है और यह पृथ्वी आसन (जहाँ बैठना होता है) है
(इस विश्वरुपी घरमें) यह मन जहाँ उसे अच्छा लगे वहाँ (बालकके समान) रममाण होके खेलता है (अच्छाही सोचता है)
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कंथाकुमंडलु देहउपचारा ।
जाणवितो वारा अवसरु ।।
जीर्ण वस्त्र और कमण्डलु इस देहको चलानेके लिए काफी हैं
(इसप्रकार निस्वार्थ जीवनमें) हवा भी बहुतही आल्हाददायक लगने लगती है
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हरिकथा भोजन परवडी विस्तार ।
करोनि प्रकार सेवूं रुची ।।
हरी (विष्णू / विठ्ठल) कथा यही हमारा भोजन है, (हम) इसका हर प्रकारसे प्रचार करते हैं
हर तरहसे प्रयास करते हैं और रुचिसे (हरीकी) सेवा करते हैं
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तुका म्हणे होय मनासी संवाद ।
आपुलाचि वाद आपणांसी ।।
कहे तुकाराम (के) तब अपनेही मनसे संवाद होता है (जब परमात्माके निसर्गरूपमें एकरूप होते हैं)
हम खुदही खुदसे विवाद (चर्चा, तर्कभेद) करने लगते हैं (अपनेमें उस परमात्मा को ढूँढ़ने लगते हैं)