विराटा की पद्मिनी upniyas ke pramukh paat ke chritr ki teen pramukh visestao PR prakas daliye
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सुरतानपुरा (परगना मोंठ, जिला झाँसी) - निवासी श्री नंदू पुरोहित के यहाँ मैं प्रायः जाया करता था। उन्हें किंवदंतियाँ और कहानी बहुत आती थीं। वह कहते-कहते कभी नहीं थकते थे, चाहे सुनने वालों को सुनते-सुनते नींद भले ही आ जाए।
एक रात मैं उनके यहाँ गया। नींद नहीं आ रही थी, इसलिए कहानी कहने की प्रार्थना की। जरा हँसकर बोले, ‘तुम भाई, सो जाते हो। कहानी समाप्ति पर ‘ओफ्फो!’ कौन कहेगा?’
मैंने उनस कहा, ‘काका, आज नहीं सोऊँगा, चाहे होड़ लगा लो।’ ‘अच्छा,’ वह बोले, ‘भैया, मैं आज ऐसी कहानी सुनाऊँगा, जिस पर तुम कविता बनाकर छपवा देना।’
वह पढ़े-लिखे न थे, इसलिए हिंदी की छपी हुई पुस्तकों को प्रायः कविता की पोथी कहा करते थे।
‘विराटा की पद्मिनी’ की कहानी उन्होंने ही सुनाई थी। यह कहानी सुनकर मुझे उस समय तो क्या, सुनने के बड़ी देर बाद तक नींद नहीं आई। परंतु खेद है, उसके प्रस्तुत रूप के समाप्त होने के पहले ही उन्होंने स्वर्गलोक की यात्रा कर दी, और मैं उन्हें परिवर्तित और संवर्द्धित रूप में यह कहानी न बता पाया!
पद्मिनी की कथा जहाँ-जहाँ दाँगी हैं, झाँसी जिले के बाहर भी, प्रसिद्ध होगी। उपन्यास लिखने के प्रयोजन से मैंने नन्दू काका की सुनाई कहानी के प्रचलित अंशों की परीक्षा करने के लिए और कई जगह उसे चुना। विराटा के वयोवृद्ध दाँगी से भी हठपूर्वक सुना। उस वयोवृद्ध ने मुझसे कहा था, "अब का धरो इन बातन में? अपनो काम देखो जू। अब तो ऐसे-ऐसे मनुष्य होने लगे कै फूँक मार दो, तो उड़ जाएँ।" इसके पश्चात् मैने विराटा, रामनगर और मुसावली की दस्तूरदेहियाँ सरकारी दफ्तर में पढ़ीं। उनमें भी पद्मिनी के बलिदान का सूक्ष्म-वर्णन पाया। मुसावली की दस्तूरदेही में लिखा है कि मुसावली-पीठ के नीचे के दो कुओं को एक बार दतिया के महाराज ने खुदवाया था। कुएँ पक्के थे, परंतु अब अस्त-व्यस्त हैं।
देवीसिंह, लोचनसिंह, जनार्दन शर्मा, अलीमर्दान इत्यादि नाम काल्पनिक हैं, परंतु उनका इतिहास सत्य-मूलक है। देवीसिंह का वास्तविक नाम इस समय नहीं बतलाया जा सकता। अनेक कालों की सच्ची घटनाओं का एक ही समय में समावेश कर देने के कारण मैं इस पुरुष के संबंध की घटनाओं को दूसरी घटनाओं से अलग करके बतलाने में असमर्थ हूँ। जनार्दन शर्मा का वास्तविक व्यक्तित्व एक दुखांत घटना है, जिस तरह जनार्दन शर्मा ने जाल रचकर देवीसिंह को राज्य दिलाया था, उसी तरह यह इतिहास और किवदंतियों में भी प्रसिद्ध है, परंतु वास्तविक जनार्दन का अंत बड़ा भयानक हुआ था।
कहा जाता है कि, राजा नायकसिंह के वास्तविक नामधारी राजा के मर जाने के बाद उनकी रानी ने प्रण किया था कि जब तक जनार्दन (वास्तविक व्यक्ति) का सिर काटकर मेरे सामने नहीं लाया जाएगा, तब तक मैं अन्न ग्रहण न करूँगी। रानी का एक सेवक जब उस बेचारे का सिर काट लाया, तब उन्होनें अन्न ग्रहण किया। यह घटना झाँसी के निकट के एक ग्राम गोरामछिया की है।
लोचनसिंह के वास्तविक रूप को इस संसार में विलीन हुए लगभग बीस वर्ष से अधिक नहीं हुए। वह बहुत ही उद्दंड और लड़ाकू प्रकृति के पुरुष थे। मेरे मित्र श्रीयुत् मैथिलीशरणजी गुप्त ने उनके एक उद्दंड कृत्य पर "सरस्वती" में "दास्ताने" शीर्षक से एक कविता भी लिखी थी।
परंतु जैसा मैं पहले कह चुका हूँ उपन्यास-कथित घटनाएँ सत्य-मूलक होने पर भी अपने अनेक कालों से उठाकर एक ही समय की लड़ी में गूँथ दी गई हैं, इसलिए कोई महाशय उपन्यास के किसी चरित्र को अपने वास्तविक रूप का संपूर्ण प्रतिबिम्ब न समझें और यदि कोई ऐसी बात ऐसे चरित्र की उन्हें खटके तो बुरा न माने। इसी कारण मैं उपन्यास-वर्णित मुख्य चरित्रों का विस्तृत परिचय इस समय न दे सका।
वृंदावनलाल वर्मा
भक्त का हठ चढ़ चुका था, ‘नहीं देवी, आज वरदान देना होगा।... यदि दलीपनगर के धर्मानुमोदित महाराज कुंजरसिंह से हार गए, यदि अलीमर्दान ने ऐसी अव्यवस्थित अवस्था में राज्य पाया, तो आपके मंदिर का क्या होगा?...’
‘क्या चाहती हो गोमती?’
‘यह भीख माँगती हूँ कि कुंजरसिंह का नाश हो, अलीमर्दान मर्दित हो और दलीपनगर के महाराज की जय हो।’
‘यह न होगा गोमती, परंतु मंदिर की रक्षा होगी और अलीमर्दान का मर्दन होगा...।’
‘यह वरदान नहीं है, यह मेरे लिए अभिशाप है देवी! मैं इस समय इस तपोमय भवन में, इस बेतवा के कोलाहल के बीच चरणों में अपना मस्तक काटकर अर्पण करूँगी।’
कुमुद ने देखा, गोमती ने अपनी कमर से कुछ निकाला...
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन
प्रकाशित वर्ष:2006
आईएसबीएन:81-7315-016-8
पृष्ठ : 264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
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एक रात मैं उनके यहाँ गया। नींद नहीं आ रही थी, इसलिए कहानी कहने की प्रार्थना की। जरा हँसकर बोले, ‘तुम भाई, सो जाते हो। कहानी समाप्ति पर ‘ओफ्फो!’ कौन कहेगा?’
मैंने उनस कहा, ‘काका, आज नहीं सोऊँगा, चाहे होड़ लगा लो।’ ‘अच्छा,’ वह बोले, ‘भैया, मैं आज ऐसी कहानी सुनाऊँगा, जिस पर तुम कविता बनाकर छपवा देना।’
वह पढ़े-लिखे न थे, इसलिए हिंदी की छपी हुई पुस्तकों को प्रायः कविता की पोथी कहा करते थे।
‘विराटा की पद्मिनी’ की कहानी उन्होंने ही सुनाई थी। यह कहानी सुनकर मुझे उस समय तो क्या, सुनने के बड़ी देर बाद तक नींद नहीं आई। परंतु खेद है, उसके प्रस्तुत रूप के समाप्त होने के पहले ही उन्होंने स्वर्गलोक की यात्रा कर दी, और मैं उन्हें परिवर्तित और संवर्द्धित रूप में यह कहानी न बता पाया!
पद्मिनी की कथा जहाँ-जहाँ दाँगी हैं, झाँसी जिले के बाहर भी, प्रसिद्ध होगी। उपन्यास लिखने के प्रयोजन से मैंने नन्दू काका की सुनाई कहानी के प्रचलित अंशों की परीक्षा करने के लिए और कई जगह उसे चुना। विराटा के वयोवृद्ध दाँगी से भी हठपूर्वक सुना। उस वयोवृद्ध ने मुझसे कहा था, "अब का धरो इन बातन में? अपनो काम देखो जू। अब तो ऐसे-ऐसे मनुष्य होने लगे कै फूँक मार दो, तो उड़ जाएँ।" इसके पश्चात् मैने विराटा, रामनगर और मुसावली की दस्तूरदेहियाँ सरकारी दफ्तर में पढ़ीं। उनमें भी पद्मिनी के बलिदान का सूक्ष्म-वर्णन पाया। मुसावली की दस्तूरदेही में लिखा है कि मुसावली-पीठ के नीचे के दो कुओं को एक बार दतिया के महाराज ने खुदवाया था। कुएँ पक्के थे, परंतु अब अस्त-व्यस्त हैं।
देवीसिंह, लोचनसिंह, जनार्दन शर्मा, अलीमर्दान इत्यादि नाम काल्पनिक हैं, परंतु उनका इतिहास सत्य-मूलक है। देवीसिंह का वास्तविक नाम इस समय नहीं बतलाया जा सकता। अनेक कालों की सच्ची घटनाओं का एक ही समय में समावेश कर देने के कारण मैं इस पुरुष के संबंध की घटनाओं को दूसरी घटनाओं से अलग करके बतलाने में असमर्थ हूँ। जनार्दन शर्मा का वास्तविक व्यक्तित्व एक दुखांत घटना है, जिस तरह जनार्दन शर्मा ने जाल रचकर देवीसिंह को राज्य दिलाया था, उसी तरह यह इतिहास और किवदंतियों में भी प्रसिद्ध है, परंतु वास्तविक जनार्दन का अंत बड़ा भयानक हुआ था।
कहा जाता है कि, राजा नायकसिंह के वास्तविक नामधारी राजा के मर जाने के बाद उनकी रानी ने प्रण किया था कि जब तक जनार्दन (वास्तविक व्यक्ति) का सिर काटकर मेरे सामने नहीं लाया जाएगा, तब तक मैं अन्न ग्रहण न करूँगी। रानी का एक सेवक जब उस बेचारे का सिर काट लाया, तब उन्होनें अन्न ग्रहण किया। यह घटना झाँसी के निकट के एक ग्राम गोरामछिया की है।
लोचनसिंह के वास्तविक रूप को इस संसार में विलीन हुए लगभग बीस वर्ष से अधिक नहीं हुए। वह बहुत ही उद्दंड और लड़ाकू प्रकृति के पुरुष थे। मेरे मित्र श्रीयुत् मैथिलीशरणजी गुप्त ने उनके एक उद्दंड कृत्य पर "सरस्वती" में "दास्ताने" शीर्षक से एक कविता भी लिखी थी।
परंतु जैसा मैं पहले कह चुका हूँ उपन्यास-कथित घटनाएँ सत्य-मूलक होने पर भी अपने अनेक कालों से उठाकर एक ही समय की लड़ी में गूँथ दी गई हैं, इसलिए कोई महाशय उपन्यास के किसी चरित्र को अपने वास्तविक रूप का संपूर्ण प्रतिबिम्ब न समझें और यदि कोई ऐसी बात ऐसे चरित्र की उन्हें खटके तो बुरा न माने। इसी कारण मैं उपन्यास-वर्णित मुख्य चरित्रों का विस्तृत परिचय इस समय न दे सका।
वृंदावनलाल वर्मा
भक्त का हठ चढ़ चुका था, ‘नहीं देवी, आज वरदान देना होगा।... यदि दलीपनगर के धर्मानुमोदित महाराज कुंजरसिंह से हार गए, यदि अलीमर्दान ने ऐसी अव्यवस्थित अवस्था में राज्य पाया, तो आपके मंदिर का क्या होगा?...’
‘क्या चाहती हो गोमती?’
‘यह भीख माँगती हूँ कि कुंजरसिंह का नाश हो, अलीमर्दान मर्दित हो और दलीपनगर के महाराज की जय हो।’
‘यह न होगा गोमती, परंतु मंदिर की रक्षा होगी और अलीमर्दान का मर्दन होगा...।’
‘यह वरदान नहीं है, यह मेरे लिए अभिशाप है देवी! मैं इस समय इस तपोमय भवन में, इस बेतवा के कोलाहल के बीच चरणों में अपना मस्तक काटकर अर्पण करूँगी।’
कुमुद ने देखा, गोमती ने अपनी कमर से कुछ निकाला...
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन
प्रकाशित वर्ष:2006
आईएसबीएन:81-7315-016-8
पृष्ठ : 264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
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