Hindi, asked by raashisharma0606, 2 months ago

विशुद्ध
व्लास्टिक
कम जहरीला क्यों होता है?
स​

Answers

Answered by lavairis504qjio
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Explanation:

आज की दुनिया में हमारे जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं है जो प्लास्टिक से अछूता हो। कॉपी-किताब, पेन-पेन्सिल, स्कूली बस्ते, लंच बॉक्स से लेकर चाय के कप और कृत्रिम गहने तक हर चीज में प्लास्टिक का इस्तेमाल हो रहा है. यहीं नहीं पूरी इलेक्टॉनिक क्रान्ति तो जैसे प्लास्टिक पर ही टिकी हुई है। मोबाइल के हैंडसेट, ईयरफोन, कम्प्यूटर-लैपटॉप, पेन-ड्राइव, टीवी, रिमोट, वॉशिंग मशीन आदि लगभग हर डिवाइस या तो प्लास्टिक की बनी हुई है या उसमें बड़ी मात्रा मे प्लास्टिक का उपयोग किया गया है।

हमारी दिनचर्या में सुबह से शाम तक प्लास्टिक निर्मित इतनी चीजें शामिल रहती हैं कि अगर किसी रोज उनका प्लास्टिक निकाल दिया जाय तो शायद दुनिया अधूरी लगने लगे। बच्चों के खिलौने हों, दूध या पानी पीने के बोतलें हों, खेल के सामान हों, जूते और यहाँ तक की कपड़ों तक में (विशेष रूप से जींस में) प्लास्टिक प्रयोग में लाई जा रही है।

प्लास्टिक के ही एक रूप पॉलिथीन का तो विशेष उल्लेख करना होगा क्योंकि इससे बनी मोटी-पतली थैलियों ने पिछले दो-तीन दशकों में सामानों को लाना-ले जाना इतना आसान कर दिया कि किसी को इससे पैदा होने वाले खतरे का अहसास तक नहीं हुआ। बेहद नाजुक, पतली सी पॉलिथीन की थैली में कैसे 5-10 किलो आटा समा जाता है, गर्म चाय और ठंडी लस्सी टिक जाती है और फिर भी उसका बाल-बाँका नहीं होता-यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है। पर यही थैलियाँँ कूड़े में फेंके जाने के बाद जब नालियों को जाम करती हैं, गायों से लेकर जंगल के शेरों के पेट में पाई जाती हैं, वर्षों बाद भी सड़ती-गलती नहीं हैं, तो सवाल उठता है कि आखिर कोई इन्हें खत्म क्यों नहीं करता है।

साफ तौर पर प्लास्टिक के दो पक्ष हैं। एक वह है जिसमें वह हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से उपयोगी है। दूसरा वह है, जिसमें वह एक प्रदूषक तत्व और इंसानों व जानवरों में बीमारियाँ फैलाने वाले तत्व के रूप में मौजूद है और उससे छुटकारा पाने या फिर उसका कोई बेहतरीन विकल्प खोजने की जरूरत पैदा होती है। लेकिन यहाँ सवाल उठता है कि प्लास्टिक आखिर दुनिया में क्यों और कब आया।

दुनिया में जब आया प्लास्टिक

प्लास्टिक के शुरुआती रूप का जिक्र सदियों पहले मिलता है। दस्तावेज बताते हैं कि 1600 ईसा पूर्व में प्राकृतिक रूप से रबर के पेड़ों से मिलने वाले रबर, माइक्रोसेल्यूलोज, कोलेजन और गैलालाइट आदि के मिश्रण से प्लास्टिक जैसी किसी चीज को तैयार किया गया था, जिसका इस्तेमाल गेंद (बॉल), बैंड और मूर्तियाँ बनाने में किया जाता था। लेकिन आज हम जिस आधुनिक प्लास्टिक के विविध रूपों को देख रहे हैं, उसके आरम्भिक आविष्कार का श्रेय ब्रिटेन के वैज्ञानिक अलेक्जेंडर पार्क्स को जाता है। उन्होंने इसे नाइट्रोसेल्यूलोज कहा, जिसे उनके सम्मान में पार्केसाइन कहा जाने लगा।

अलेक्जेंडर पार्क्स एक हाथी दाँत का सिथेंटिक विकल्प खोज रहे थे ताकि सजावटी सामान बनाने के लिये हाथी दाँत की जगह उस पदार्थ का इस्तेमाल हो सके और हाथियों की हत्या रोकी जा सके। अलेक्जेंडर पार्क्स इस काम में थोड़ा-बहुत सफल भी रहे। उन्होंने अपनी खोज को 1856 में बर्मिंघम में पेटेंट कराया और फिर भी इससे बनी चीजों को उन्होंने 1862 में लंदन में लगी एक अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शनी में पेश किया। इसके लिये उन्हें एक कांस्य पदक देकर सम्मानित भी किया गया।

लेकिन प्लास्टिक की यह किस्म इतनी लचीली नहीं थी कि उसे मनचाहा आकार दिया जा सके। बाद में प्लास्टिक को लेकर कई खोजें हुईं। जिनसे इसके परिष्कृत रूप सामने आने लगे। जैसे सन 1897 में जर्मनी के दो रसायनशास्त्रियों विल्हेल्म फ्रिस्क और अडोल्फ स्पिट्लर ने ब्लैक बोर्ड बनाने के स्लेट का विकल्प खोजने की कोशिश शुरू की।

इसके बाद करीब 40 वर्षों तक प्रयोंगों से कैसीन नामक पदार्थ पर फॉर्मेल्डिहाइड की अभिक्रिया कराते हुए जानवरों के सींग से प्लास्टिक जैसा लचीला पदार्थ हासिल किया गया जो कई चीजें बनाने में काम आने लगा। लेकिन असली क्रान्ति 1900 में हुई थी, जब प्लास्टिक का पूरी तरह से सिथेंटिक (यानी कैमिकल्स से तैयार) स्वरूप सामने आया। यह प्लास्टिक फिनॉल और फॉर्मेल्डिहाइड के उपयोग से बनाया गया था।

आई बारी सच्चे प्लास्टिक की

बेल्जियम मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक लियो एच. बैकलैंड को इसका श्रेय दिया जा सकता है कि आज हम प्लास्टिक की जिन विभिन्न किस्मों और सभी चीजों में प्लास्टिक के इस्तेमाल को देख रहे हैं, उसकी खोज उन्होंने ही की थी। बेल्जियम में पैदा होने वाले लिये बैकलैंड एक मोची के बेटे थे। उनके पिता अशिक्षित थे और उन्हें अपनी तरह ही जूते बनाने के धंधे में लाना चाहते थे। हैरानी की बात है कि वे समझ नहीं पा रहे थे कि लियो पढ़-लिखकर आखिर क्या करना चाहते हैं।

बैकलैंड की असली कहानी तब शुरू हुई, जब वह अमेरिका आये और न्यूयॉर्क में हडसन नदी के किनारे पर एक घर खरीदा। इस घर में समय बिताने के लिये उन्होंने एक प्रयोगशाला (लैब) बनाई थी, जहाँ पर 1907 में उन्होंने रसायनों के साथ समय बिताते हुए प्लास्टिक का अविष्कार किया था।

प्लास्टिक का अविष्कार करने के बाद 11 जुलाई, 1907 को एक जर्नल में लिखे अपने लेख में बैकलैंड ने लिखा, ‘अगर मैं गलत नहीं हूँ तो मेरा ये अविष्कार (बैकेलाइट) एक नए भविष्य की रचना करेगा।’ ऐसा हुआ भी उस वक्त प्रसिद्ध मैगजीन- टाइम ने अपने मुख्यपृष्ठ पर लियो बैकलैंड की तस्वीर छापी और उनकी फोटो के साथ उनके नाम की जगह लिखा- ‘ये ना जलेगा और ना पिघलेगा।’

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