वैश्वीकरण ने भारत को कैसे प्रभावित किया है और भारत कैसे वैश्वीकरण को प्रभावित कर रहा है?
Answers
"भारत पर वैश्वीकरण का प्रभाव:-
वस्तु ,पूंजी, विचार और लोगों की आवाजाही भारतीय इतिहास में सदियों से होता आ रहा है| ब्रिटेन के औपनिवेशिक दौर में भी साम्राज्यवादी मंसूबों के फलस्वरूप भारत आधारभूत वस्तुओं और कच्चे माल का निर्यातक और आयातक देश था |आजादी के बाद ब्रिटेन के साथ अनुभव से सबक लेते हुए हमने सीखा की दूसरों पर निर्भर रहने की बजाय सामान खुद बनाया जाए| इसके साथ फैसला किया गया कि दूसरे देशों को निर्यात की अनुमति नहीं होगी ताकि हम उत्पादक चीजों को बनाना सीख सकें | इस संरक्षणवाद में कुछ नई दिक्कतें आई | कुछ क्षेत्रों में तरक्की हुई और कुछ जरूरी क्षेत्रों में जैसे स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा और आवास पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था| इसके साथ ही हमारी आर्थिक वृद्धि दर धीमी रही|
भारत में वैश्वीकरण को अपनाना:-
1991 की नई आर्थिक नीति के अंतर्गत भारत में उदारीकरण और वैश्वीकरण को अपनाया और संरक्षण नीति को त्याग दिया| बहुराष्ट्रीय कंपनियों की स्थापना और विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया| विदेशी प्रौद्योगिकी और विशेषज्ञों की सेवाएं ली गई| दूसरी तरफ भारत ने औद्योगिक संरक्षण नीति को त्याग दिया| जब अधिकांश वस्तुओं के आयात के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य नहीं है, भारत ने स्वयं को अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से जोड़ लिया| भारत में निर्यात के साथ साथ वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ रही हैं| लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं| अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होते जा रहे हैं|
भारत में वैश्वीकरण का प्रतिरोध:-
वैश्वीकरण बड़ी बहस का मुद्दा है |पूरी दुनिया में इसकी आलोचना भी हुई है |भारत में वैश्वीकरण के आलोचक कई तर्क देते हैं:-
1. वामपंथी राजनीतिक रुझान रखने वालों का मानना है कि वैश्वीकरण विश्वव्यापी पूंजीवाद की एक खास अवस्था है जो अमीरों को और अमीर और गरीबों को और गरीब बना रही है|
2. राज्य के कमजोर होने से उनकी गरीबों के हितों की रक्षा करने की क्षमता कम हो रही है| वैश्वीकरण के दक्षिणपंथी आलोचक इसके राजनीतिक , आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव को लेकर भी चिंतित रहते हैं| राजनीतिक अर्थों में उन्हें राज्य के कमजोर होने की चिंता रहती है | उन्हें लगता है कि कम से कम कुछ क्षेत्रों में ""आर्थिक आत्मनिर्भरता और संरक्षणवाद ""का दौर फिर से कायम किया जाए| सांस्कृतिक वैश्वीकरण के संबंध में उनका कहना है कि परंपरागत संस्कृति की हानि होगी और लोग अपने सदियों पुराने जीवन मूल्य और तौर तरीकों से हाथ धो बैठेंगे|
वैश्वीकरण के प्रतिरोध को लेकर भारत के अनुभव:-
सामाजिक आंदोलनों से लोगों को अपने आसपास की दुनिया को समझने का मौका मिलता है | और अपनी समस्याओं के हल तलाशने में मदद मिलती है | वैश्वीकरण के खिलाफ वामपंथी समर्थकों ने विभिन्न मंचों से औद्योगिक श्रमिक और किसानों के संगठन में बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रवेश का विरोध किया है | कुछ वनस्पतियों जैसे ""नीम"" को अमेरिकी और यूरोपीय समूह में पेटेंट कराने के प्रयास किए हैं | इनका भी कड़ा विरोध हुआ है |
2 वैश्वीकरण का विरोध राजनीति के दक्षिणपंथी खेमो मैं भी किया जा रहा है| यह खेमा विभिन्न सांस्कृतिक प्रभाव का विरोध करता है जिसमें केबल नेटवर्क के जरिए उपलब्ध कराए जा रहे विदेशी टीवी चैनल से लेकर वैलेंटाइन डे मनाने और स्कूल कॉलेज के छात्र-छात्राओं की पश्चिमी संस्कृति जैसी पोशाकों के लिए बढ़ती अभिरुचि तक का विरोध किया गया है"
Answer:
Hii mate
Explanation:
1. साल 2008 की एक रिपोर्ट की मुताबिक, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में सबसे विशाल पर्यावरणीय पदचिन्ह (इकोलॉजिकल फुटप्रिंट) भारत का ही है। हमारे पास जितने प्राकृतिक संसाधन हैं, हमारे देश के लोग उससे दोगुनी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं। ऊपर से, भारत में प्रकृति की मनुष्यों के भरण-पोषण की क्षमता पिछले चार दशकों के दौरान घटकर महज आधी रह गई है।1
2. देश के सबसे अमीर लोगों (यानी आबादी के सबसे अमीर 0.01 प्रतिशत तबके) के प्रति व्यक्ति पर्यावरणीय पदचिन्ह देश की सबसे गरीब 40 प्रतिशत आबादी के मुकाबले 330 गुना ज्यादा है। ये किसी औद्योगिक, सम्पन्न देश के औसत नागरिक के पर्यावरणीय पदचिन्ह से भी 12 गुना ज्यादा है। भारत के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के पर्यावरणीय पदचिन्ह अमीर देशों के सामान्य नागरिकों से दो तिहाई और देश के 40 प्रतिशत निर्धनतम लोगों के पर्यावरणीय पदचिन्ह से 17 गुना ज्यादा है। इस तरह, अगर भारत के किसी व्यक्ति के पास एक कार और एक लैपटॉप है तो वह 17 बेहद निर्धन भारतीयों के बराबर संसाधनों का दोहन करता है। इस तरह का व्यक्ति लगभग 2.3 औसत विश्व नागरिकों (2007 में वैश्विक प्रति व्यक्ति आय लगभग 10,000 डॉलर थी) के बराबर संसाधनों का उपभोग कर लेता है।2
3. पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्टेट ऑफ एनवायरनमेंट रिपोर्ट, 2009 के मुताबिक भारत की खाद्य सुरक्षा भविष्य में आने वाले वायुमंडलीय परिवर्तन के कारण खतरे में पड़ सकती है क्योंकि इससे सूखे व बाढ़ों की बारम्बारता व सघनता बढ़ जाएगी और छोटे व सीमान्त किसानों की उपज पर सीधा असर पड़ेगा। यानी पूरे देश में कृषि उपज उल्लेखनीय रूप से घटने वाली है।3
4. वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में फिलहाल भारत का हिस्सा लगभग 8 प्रतिशत है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के नाते उसका यह हिस्सा भी हर साल बढ़ता जा रहा है। अनुमान लगाया जाता है कि अगर मौजूदा रुझान कायम रहा तो 2030 तक भारत का औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन स्तर तीन गुना हो जाएगा।4
5. भारत की आधी से ज्यादा ऊर्जा कोयले से आती है। ज्यादातर कोयला खानों को सम्भालने वाले कोल इंडिया के मुताबिक, हमारे इस्तेमाल योग्य कोयला भंडार उतने बड़े नहीं है जितना पहले माना जाता था। मौजूदा विकास दर के हिसाब से ये भंडार तकरीबन 80 साल तक ही चल पाएँगे। लेकिन आने वाले दौर की अनुमानित वृद्धि दर के हिसाब से देखें तो इन भंडारों की उम्र सिर्फ 3-4 दशक ही बची है।5 इसके बावजूद गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोतों के लिये हमारा केन्द्रीय बजट कुल ऊर्जा बजट का सिर्फ 1.28 प्रतिशत है।6
6. पानी का बारहमासी संकट देश के नये-नये इलाकों को अपनी चपेट में लेता जा रहा है। भूमिगत पानी के सालाना अतिदोहन की सबसे ऊँची दर भारत की ही है। देश के बहुत सारे भागों में जमीन से पानी निकालने की दर जमीन में पानी के संरक्षण से दोगुना पहुँच चुकी है। जैसे-जैसे भूमिगत जल भण्डार सूखते जा रहे हैं, जलस्तर गिरता जा रहा है। कई जगह (जैसे पंजाब में ) तो जलस्तर हर साल 3-10 फुट तक गिरता जा रहा है! जैसे-जैसे वायुमंडलीय परिवर्तन की वजह से तापमान बढ़ रहा है, देश में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता, जो 2001 में 1820 घन मीटर प्रति वर्ष थी वह 2050 तक गिरकर केवल 1140 घनमीटर वार्षिक के स्तर पर पहुँच जाएगी। भले ही बारिश के मौसम में बारिश घनी हो जाए लेकिन तब तक बारिश के दिनों में 15 दिन की गिरावट आ चुकी होगी।7
7. 2009 का साल पिछले कई दशकों के दौरान भारत में सबसे ज्यादा सूखे का साल रहा। उस साल मानसून में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश व पंजाब जैसे कुछ कृषि क्षेत्रों में तो ये इससे भी काफी ज्यादा थी। इससे खेती पर बहुत गहरे असर पड़े थे।8
8. खेती की उपज के लिये मिट्टी की ऊपरी सतह बहुत कीमती होती है। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (आईसीएआर) के मुताबिक हर साल प्रति हेक्टेयर 16 टन ऊपरी मिट्टी यानी पूरे देश में लगभग 5 अरब टन उपजाऊ मिट्टी खत्म होती जा रही है। इस ऊपरी परत को बनने में हजारों साल लगते हैं। बंगलुरु के आस-पास सूखे से जूझ रहे गाँवों के किसान भूखमरी से निपटने के लिये हर रोज अपने खेतों से लगभग 1000 ट्रक मिट्टी खोदकर बंगलुरु में चल रहे निर्माण कार्यों के लिये बेचते हैं।9
9. 1990 से 2000 के बीच पुनर्वृक्षारोपण की दर 0.57 प्रतिशत सालाना थी। 2000 से 2005 के बीच यह मात्र 0.05 प्रतिशत रह गई थी। अब घने या मध्यम स्तर तक घने जंगल भारत के 12 प्रतिशत से भी कम भू-भाग पर रह गए हैं। इतना ही क्षेत्रफल खुले जंगलों या झाड़ीदार जंगलों का है।10
10. 1980-81 के बाद जितनी वन भूमि का सफाया किया गया है उसमें से लगभग 55 प्रतिशत 2001 के बाद हुआ है। 1980-81 के बाद खानों के लिये जितने जंगलों की सफाई हुई है उनमें से 70 प्रतिशत 1997 से 2007 के बीच काटे गए हैं। वैश्वीकरण ने जंगलों की कटाई और जमीन को अनुपजाऊ बनाने में बहुत तेजी ला दी है। यह परिघटना अस्सी के दशक तक काफी हद तक अंकुश में थी।
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