History, asked by olivecktr2069, 1 year ago

विश्व शांति आपका क्या कर्तव्य है

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Answered by Anonymous
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विश्व शांति के प्रति हमारा बहुत बड़ा कर्तव्य बनता है कि हम विश्व शांति में सहयोग दें जैसे हमारा देश भारत जो पूर्व काल से ही विश्व शांति का संदेश देते चला आ रहा है इसी कारणवश हमारा भारत विश्व गुरु के नाम से विख्यात है अतः हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी जी का भी यही उद्देश्य है कि पूरे विश्व में हमारा भारत फिर से विश्व गुरु का दर्जा हासिल करें जिसके हेतु हम इसी कार्य के लिए जुटे हैं हमारा कर्तव्य बनता है कि विश्व में किसी प्रकार की अशांति नाम फैलने दें जिससे कि विश्व की शांति भंग हो यह पूरे देश एवं पूरे विश्व का कर्तव्य बनता है कि हम सहयोग करें धन्यवाद यदि हमारा उत्तर आपको उचित लगा हो तो हमें धन्यवाद करें मुझे लगता है मैंने अपने शब्दों में उचित उत्तर दिया है धन्यवाद.
Answered by komalshukla170
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वह महान शांति जिसकी ओर सद्भावनासंपन्न लोगों ने शताब्दियों से अपने हृदय की आशा को केन्द्रित किया था, जिसकी परिकल्पना असंख्य पीढ़ियों के द्रष्टाओं और कवियों ने अभिव्यक्त की थी, और जिसका वचन युग-युग में मानवजाति के पवित्र धर्मग्रंथों ने दिया था, अब, अन्ततः, राष्ट्रों की पहुंच के भीतर दिखाई देती है। इतिहास में पहली बार प्रत्येक व्यक्ति के लिये यह संभव हो सका है कि इस समूचे पृथ्वी ग्रह को इसके विविध राष्ट्रों और जनसमूहों के साथ एकता की समग्र दृष्टि से देख सके। विश्व शांति केवल संभव ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य है। एक महान विचारक के शब्दों में इस धरती के विकास का यह अगला चरण है, “मानवजाति का सार्वभौमीकरण”।

क्या शांति की मंज़िल तक हम तभी पहुंच पायेंगे, जब मानवजाति द्वारा व्यवहार और आचरण के पुराने ढर्रे और पुराने तरीकों पर हठपूर्वक अड़े रहने के कारण हम अकल्पनीय यातनायें भोग चुके होंगे ? या फिर आपसी परामर्श के परिणामस्वरूप स्वेच्छापूर्वक हम शांति को अपनायेंगे ? यह एक ऐसा विकल्प है जो इस धरती के सभी निवासियों के सामने खुला है। इस नाजुक मोड़ पर जबकि राष्ट्रों के सामने खड़ी अनेकों असाध्य समस्यायें एक सामान्य रूप लेकर पूरे विश्व की साझी चिंता बन गई हैं, संघर्ष और अव्यवस्था के ज्वार को रोकने में असफलता, एक घोर गैरज़िम्मेदारी का काम होगा।

इस असाधारण रूप से सौभाग्यशाली शताब्दी में होने वाली वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति, इस धरती पर सामाजिक विकास के क्षेत्र में एक भारी उन्नति का पूर्वाभास देती है और उन साधनों की ओर इशारा करती है जिनके द्वारा मानवजाति की व्यावहारिक समस्यायें सुलझाई जा सकती हैं। वस्तुतः वे एक संयुक्त संसार के जटिल और संश्लिष्ट प्रशासन के साधन प्रस्तुत करते हैं। फिर भी मार्ग में बाधायें बनी हुई हैं। शंकायें, गलत धारणायें, पूर्वाग्रह, संदेह, और संकीर्ण निहित स्वार्थ राष्ट्रों और लोगों के आपसी संबंधों में अड़चनें बने हुए हैं।

इस उपयुक्त अवसर पर एक गहन आध्यात्मिक और नैतिक दायित्व के कारण ही हम इस सामयिक अवसर पर आपका ध्यान उन मर्मज्ञ अंतर्दृष्टियों की ओर आकर्षित करने को विवश हो रहे हैं, जो बहाई धर्म के प्रवर्त्तक बहाउल्लाह ने एक सदी से भी पहले सर्वप्रथम मानवजाति के शासनकर्ताओं तक प्रेषित किये थे, क्योंकि ‘उनके’ धर्म के न्यासधारी होने के कारण हम इसे अपना कर्तव्य समझते हैं।

बहाउल्लाह ने लिखा था “शोक का विषय है कि निराशा के झंझावात प्रत्येक दिशा से चल रहे हैं और मानवजाति को विभाजित तथा आहत करने वाले झगड़े दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। भविष्य में होने वाली उथल-पुथल और संकट के चिन्ह अभी से पहचाने जा सकते हैं, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था अत्यधिक दयनीय रूप से दोषपूर्ण है।” इस भविष्यद्रष्टा के इस निष्कर्ष का पर्याप्त प्रमाण मानवजाति के साझे अनुभव से मिल जाता है। वर्तमान व्यवस्था की कमियां इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती हैं कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के रूप में संगठित संसार के प्रभुसत्तासंपन्न राष्ट्र, युद्ध की कालीछाया को, अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के ढह जाने के संकट को, अराजकता और आतंकवाद को, और इनके तथा अन्य व्याधियों के कारण करोड़ों लोगों के भी निरंतर बढ़ते जा रहे भीषण कष्ट को अभी तक दूर नहीं हटा सके हैं। दरअसल आक्रामकता और टकराव हमारी सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्थाओं का इस हद तक मूल स्वभाव बन गये हैं कि बहुत से लोग इस दृष्टिकोण के आगे घुटने टेक चुके हैं-कि ऐसा व्यवहार मानव स्वभाव का एक स्वाभाविक अंग है और इसलिये इसे मिटाया नहीं जा सकता।

इस दृष्टिकोण के गहरे जड़ जमा लेने के कारण मानवजाति के कार्यकलापों में एक ऐसा विरोध उत्पन्न हो गया है जो उसे जड़ और गतिहीन बना रहा है। एक ओर तो सभी राष्ट्रों के लोग न केवल शांति और समन्वय के लिये अपनी स्वीकृति, बल्कि अपनी प्रबल लालसा का ढ़िढोरा पीटते हैं, और उनकी रोजमर्रा की जिन्दगी पर मंडराती भय और शंकाओं की इस यंत्रणा का अंत चाहते हैं, दूसरी ओर इस सिद्धान्त को भी बिना सोचे समझे स्वीकार कर लेते हैं कि मनुष्य इतना स्वार्थी और आक्रामक जीव है कि उसके इन दुर्गुणों को दूर नहीं किया जा सकता और इसीलिए वह एक ऐसी समाज-व्यवस्था के निर्माण के अयोग्य है जो एक साथ ही प्रगतिशील तथा शांतिमय हो, गत्यात्मक और सामंजस्यपूर्ण हो, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें व्यक्ति की सृजनात्मकता और व्यक्तिगत पहल के लिये उन्मुक्त अवसर हों, लेकिन वह सहयोग और आपसी आदान प्रदान पर भी आधारित हो।

जैसे-जैसे शांति अधिक से अधिक वांछनीय होती जाती है, यह आधारभूत विरोध जो शांति के सपने के साकार होने में बाधक है, उन धारणाओं पर पुनर्विचार की मांग करता है जिन पर मनुष्यजाति का इस ऐतिहासिक स्थिति के प्रति आज का सामान्य दृष्टिकोण आधारित है। यदि अनासक्त भाव से तथ्यों का परीक्षण किया जाये तो यह प्रमाणित हो जाता है कि ऐसा आचरण मनुष्य के सच्चे स्वरूप को प्रकट करने की बात से बहुत दूर, मानव-चेतना के एक विकृत रूप को सामने रखता है। इस विषय में संतुष्ट होने पर सभी मनुष्य ऐसी रचनात्मक सामाजिक शक्तियों को गतिमान कर सकेंगे जो मनुष्य के मूल स्वभाव के अनुकूल होने के कारण युद्ध और विरोध को बढ़ावा देने के स्थान पर सामंजस्य और सहयोग को प्रोत्साहन देंगी।



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