Hindi, asked by ramijraja9163, 1 year ago

विश्वेश्वर का चरित्र चित्र

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Answered by TheRose
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मानव सभ्यता के विकास के कालक्रम में कर्म कर अनुभव के ज्ञान सूत्र का संकलन ही वेद के रूप में व्यक्त हुआ जिससे आने वाली पीढ़ी मार्गदर्शन को प्राप्त कर सके और अपना समय बचाते हुए कर्म कर सके। अर्थात प्रत्येक साकार सफल नेतृत्व के साथ उसके अनुभव का निराकार ज्ञान सूत्र के संकलन की समानान्तर प्रक्रिया भी चलती रही। और यह सभी प्रक्रिया मानव जाति के श्रेष्ठतम विकास के लिए ही की जा रही थी। समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र की रचना करना व उसका प्रचार-प्रसार करने वाले व्यास कहलाये। 

जिनके द्वारा शास्त्र रचना के युगानुसार निम्न चरण पूरे हुए।
1. सार्वभौम आत्मा के ज्ञान द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - वेद 
2. सार्वभौम आत्मा के नाम द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - उपनिषद् 
3. सार्वभौम आत्मा के कृति कथा द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - पुराण
4. सार्वभौम आत्मा के प्रकृति द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - महाभारत
5. सार्वभौम आत्मा के कर्मज्ञान द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र -विश्वशास्त्र-द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज 
वेद के ज्ञान सूत्र व उपनिषद् की वार्ता के अलावा मनुष्य को एकात्म करने के लिए दृश्य चित्र या वस्तु की आवश्यकता की विधि का प्रयोग ही पौराणिक देवी-देवता हैं। सार्वभौम आत्मा के कृति कथा द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए पुराण शास्त्र ही देवी-देवताओं के उत्पत्ति का कारण है। जिसे उत्पन्न करने का कारण मानव को एक आदर्श मानक पैमाना व लक्ष्य देना था जिससे वे मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें। वेद और उपनिषद् शास्त्र में देवी-देवता के स्थान पर मात्र प्रकृति-पुरूष का प्रतीक चिन्ह - शिवलिंग ही व्यक्त था। मनुष्य या कोई भी जीव जब अपने ईश्वर का रूप निर्धारित करेगा तब वह अपनी ही शारीरिक संरचना रूप में ही कल्पना कर सकता है। इस मानवीय रूप के निर्धारण में गुणों को वस्त्र-आभूषण, वाहन इत्यादि के प्रतीक के माध्यम से व्यक्त किया गया। पुराणों में निम्नलिखित विधि से देवी-देवताओं की उत्पत्ति की गयी है-
1. सार्वभौम आत्मा से ब्रह्माण्ड और उसके परिवार जैसे सूर्य, चाँद, ग्रह, नक्षत्र, नदी, समुद्र, पर्वत इत्यादि को देवी-देवता के रूप में एक मानवीय रूप द्वारा गुणों के अनुसार निरूपित कर प्रक्षेपित किया गया। जिससे यह ज्ञान प्राप्त हो सके कि उस अदृश्य ईश्वर की कृति यह ब्रह्माण्ड उसका दृश्य रूप है अर्थात यह दृश्य ब्रह्माण्ड ही हमारा दृश्य ईश्वर है। अर्थात जिस प्रकार हम ईश्वर से प्रेम करते हैं उसी प्रकार हमें इस दृश्य ईश्वर - ब्रह्माण्ड से प्रेम करना चाहिए जो हमें प्रत्यक्ष रूप में जीवन संसाधन उपलब्ध कराता है।
2. सार्वभौम आत्मा से मनुष्य और उसके परिवार को देवी-देवता के रूप में एक मानवीय रूप द्वारा गुणों के अनुसार निरूपित कर प्रक्षेपित किया गया। जिससे यह ज्ञान प्राप्त हो सके कि उस अदृश्य ईश्वर की कृति यह मनुष्य उसका दृश्य रूप है अर्थात यह दृश्य मनुष्य ही हमारा दृश्य ईश्वर है। अर्थात जिस प्रकार हम ईश्वर से प्रेम करते हैं उसी प्रकार हमें इस दृश्य ईश्वर - मानव से प्रेम करना चाहिए जो हमें प्रत्यक्ष रूप में जीवन संसाधन उपलब्ध कराता है। 
अन्तः दृष्टि में भिन्नता होने से ही अलग-अलग मनुष्य एक ही विषय को भिन्न-भिन्न रूपों में देखते है और अपने स्वरूप या दृष्टि के अनुसार उसकी व्याख्या करते है। यह उसी प्रकार से होता है जैसे एक सोने के गिलास को एक बच्चा खिलौने की दृष्टि से देखेगा, तो धन की प्राथमिकता वाला व्यक्ति उसे धन रूप में देख सकता है, तो एक चोर उसी को चोरी करने योग्य वस्तु की दृष्टि से देखेगा, तो कोई प्यासा व्यक्ति उसे पीने के पात्र के रूप में देखेगा। इसी प्रकार पुराण कथा के सम्बन्ध में भी हैं। तो फिर पुराणों को समझने के लिए की सत्य दृष्टि क्या है? आत्मतत्व निराकार है उसकी उपस्थिति गुणों से ही प्रमाणित होती है। जैसे-अदृश्य हवा और विद्युत इत्यादि का प्रमाण उसके गुणों और यन्त्रों के गतिमान होने पर प्रमाणित होती है। उसी प्रकार आत्मा का पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित व्यक्त गुण एकात्म ज्ञान, एकात्मकर्मं और एकात्मध्यान का संयुक्त रूप है। जिन्हें पुराणों में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के सगुण रूप में प्रक्षेपित किया गया है। परन्तु मनीषी यह जानते थे कि एकात्मज्ञान बिना एकात्मकर्म के सामाजिक प्रमाणित नहीं हो पाता और एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म बिना एकात्मध्यान के सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित नहीं हो पाता। इसलिए पुराण में शिव-शंकर से विष्णु को तथा पुनः विष्णु से ब्रह्मा को बहिर्गत
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