विवाह एवं इसके विभिन्न स्वरूपों की परिभाषा दीजिए (500 शाब्दों में)
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विवाह, जिसे शादी भी कहा जाता है, दो लोगों के बीच एक सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मिलन है जो उन लोगों के बीच, साथ ही उनके और किसी भी परिणामी जैविक या दत्तक बच्चों तथा समधियों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करता है। विवाह की परिभाषा न केवल संस्कृतियों और धर्मों के बीच, बल्कि किसी भी संस्कृति और धर्म के इतिहास में भी दुनिया भर में बदलती है। आमतौर पर, यह मुख्य रूप से एक संस्थान है जिसमें पारस्परिक संबंध, आमतौर पर यौन, स्वीकार किए जाते हैं या संस्वीकृत होते हैं।
एक विवाह के समारोह को विवाह उत्सव (वेडिंग) कहते है।
विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा या समाजशास्त्रीय संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई- परिवार-का मूल है। यह मानव प्रजाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्री माध्यम भी है। और मर्दाना शहादत आदमी का और बलिदान भगवान सेंट जॉर्ज के अनुसार पैदा होना लिंग आदमी और औरत होगा। लिंग पुरुष और महिला और एक अवधारणा सार्वभौमिक दिव्य शाश्वत रसायन शास्त्र गूढ़ धनुर्विद्या धनुर्विद्या आदिम अमर पीढ़ियों से अनंत और विवाह से परे के लिए उत्पन्न किया जा सकता है जीवन का चक्र।
परिचय
'विवाह' शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। इसका पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है; जिससे पति-पत्नी के 'स्थायी'-संबंध का निर्माण होता है। प्राचीन एवं मध्यकाल के धर्मशास्त्री तथा वर्तमान युग के समाजशास्त्री, समाज द्वारा अनुमोदित, परिवार की स्थापना करनेवाली किसी भी पद्धति को विवाह मानते हैं। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि (३। २०) के शब्दों में विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जाने वाला, अनेक विधियों से संपन्न होने वाला तथा कन्या को पत्नी बनाने वाला संस्कार है। रघुनंदन के मतानुसार उस विधि को विवाह कहते हैं जिससे कोई स्त्री (किसी की) पत्नी बनती है। वैस्टरमार्क ने इसे एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ ऐसा संबंध बताया है, जो इस संबंध को करने वाले दोनों पक्षों को तथा उनकी संतान को कुछ अधिकार एवं कर्तव्य प्रदान करता है।
विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जानेवाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। इस संबंध से पति-पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति-पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहाँ दूसरी ओर पति को पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। संस्कृत में पति का शब्दार्थ है : 'पालन ' तथा 'भार्या' का अर्थ है 'भरणपोषण की जाने योग्य नारी'। पति के संतान और बच्चों पर कुछ अधिकार माने जाते हैं। विवाह प्राय: समाज में नवजात प्राणियों की स्थिति का निर्धारण करता है। संपत्ति का उत्तराधिकार अधिकांश समाजों में वैध विवाहों से उत्पन्न संतान को ही दिया जाता है।
वैवाहिक विधियाँ
लगभग सभी समाजों में विवाह का संस्कार कुछ विशिष्ट विधियों के साथ संपन्न किया जाता है। यह नरनारी के पति-पत्नी बनने की घोषणा करता है, संबंधियों को संस्कार के समारोह में बुलाकर उन्हें इस नवीन दांपत्य संबंध का साक्षी बताया जाता है, धार्मिक विधियों द्वारा उसे कानूनी मान्यता और सामाजिक सहमति प्रदान की जाती है। वैवाहिक विधियों का प्रधान उद्देश्य नवीन संबंध का विज्ञापन करना, इसे सुखमय बनाना तथा नानाप्रकार के अनिष्टों से इसकी रक्षा करना है। विवाह संस्कार की विधियों में विस्मयावह वैविध्य है। किंतु इन्हें चार बड़े वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। पहले वर्ग में वर वधू की स्थिति में आनेवाले परिवर्तन को सूचित करनेवाली विधियाँ हैं। विवाह में कन्यादान कन्या के पिता से पति के नियंत्रण में जाने की स्थिति को द्योतित करता है। इंग्लैंड, पैलेस्टाइन, जावा, चीन में वधू को नए घर की देहली में प्रवेश के समय उठाकर ले जाना वधूद्वारा घर के परिवर्तन को महत्वपूर्ण बनाना है। स्काटलैंड में वधू के पीछे पुराना जूता यह सूचित करने के लिए फेंका जाता है कि अब पिता का उसपर कोई अधिकार नहीं रहा। दूसरे वर्ग की विधियों का उद्देश्य दुष्प्रभावों को दूर करना है। यूरोप और अफ्रीका में विवाह के समय दुष्टात्माओं को मार भगाने के लिए बाण फेंके जाते हैं और बंदूके छोड़ी जाती हैं। दुष्टात्माओं का निवासस्थान अंधकारपूर्ण स्थान होते हैं और विवाह में अग्नि के प्रयोग से इनका विद्रावण किया जाता है। विवाह के समय वर द्वारा तलवार आदि का धारण, इंग्लैंड में वधू द्वारा दुष्टात्माओं को भगाने में समर्थ समझी जानेवाली घोड़े की नाल ले जाने की विधि का कारण भी यही समझा जाता है। तीसरे वर्ग में उर्वरता की प्रतीक और संतानसमृद्धि की कामना को सूचित करनेवाली विधियाँ आती हैं। भारत, चीन, मलाया में वधू पर चावल, अनाज तथा फल डालने की विधियाँ प्रचलित हैं। जिस प्रकार अन्न का एक दाना बीसियों नए दानें पैदा करता है, उसी प्रकार वधू से प्रचुर संख्या में संतान उत्पन्न करने की आशा रखी जाती है। स्लाव देशों में वधू की गोद में इसी उद्देश्य से लड़का बैठाया जाता है। चौथे वर्ग की विधियाँ वर वधू की एकता और अभिन्नता को सूचित करती हैं। दक्षिणी सेलीबीज में वरवधू के वस्त्रों को सीकर उनपर एक कपड़ा डाल दिया जाता है। भारत और ईरान में प्रचलित ग्रंथिबंधन की पद्धति का भी यही उद्देश्य है।
विवाह, जिसे अक्सर पति-पत्नी के बीच एक सांस्कृतिक या औपचारिक रूप से स्वीकृत सहवास है जो दो व्यक्तियों के बीच लाभ और जिम्मेदारियों को स्थिर करता है, साथ ही उनमें और किसी भी परिणामस्वरूप शारीरिक या बच्चों और रिश्ते को बढ़ावा देता है।
एक विवाह समारोह को शादी के रूप में जाना जाता है।
1. मोनोगैमी:
यह विवाह का एक रूप है जिसमें एक पुरुष एक समय में एक महिला से शादी करता है।
2. बहुविवाह:
कुछ संस्कृतियाँ एक व्यक्ति को एक ही समय में एक से अधिक पति-पत्नी की अनुमति देती हैं
बहुविवाह के तीन मूल रूप हैं:
(ए) बहुविवाह:
यह एक ही समय में पत्नियों की बहुलता या एक से अधिक पत्नी होने का उल्लेख करता है।
(b) बहुपतित्व:
यह एक प्रकार का विवाह है जिसमें एक महिला के कई पति (पति की बहुलता) या एक साथ दो या अधिक पति हो सकते हैं।
(ग) सामूहिक विवाह:
यह एक और प्रकार की बहुविवाह है, जिसमें कई या कई पुरुष कई या कई महिलाओं से शादी करते हैं। कुछ देसी समाजों में इसका प्रचलन है।