History, asked by satyamkumar66684, 1 month ago

विवाह संबंधी 'बर्हिविवाह पद्धति' का क्या अर्थ है​

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Answered by yogita2008dp
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Answer:

बहिर्विवाह का तात्पर्य किसी जाति के एक छोटे समूह से तथा निकट संबंधियों के वर्ग से बाहर विवाह का नियम है। समाज में अंतर्विवाह को असगोत्रता का तथा बहिर्विवाह को असपिंडता का नियम कहते हैं। असगोत्रता का अर्थ है कि वधू वर के गोत्र से भिन्न गोत्र की होनी चाहिए। असपिंडता का आशय समान पिंड या देह का अथवा घनिष्ठ रक्त का संबंध न होना है। हिंदू समाज में प्रचलित सपिंडता के सामान्य नियम के अनुसार माता की पाँच तथा पिता की सात पीढ़ियों में होने वाले व्यक्तियों को संपिड माना जाता है, इनके साथ वैवाहिक संबंध वर्जित है। प्राचीन रोम में छठी पीढ़ी के भीतर आने वाले संबंधियों के साथ विवाह निषिद्ध था। 1215 ई. की लैटरन की ईसाई धर्म परिषद् ने इनकी संख्या घटाकर चार पीढ़ी कर दी। अनेक अन्य जातियाँ पत्नी के मरने पर उसकी बहिन के साथ विवाह को प्राथमिकता देती हैं किंतु कैथोलिक चर्च मृत पत्नी की बहिन के साथ विवाह वर्जित ठहराता है। इंग्लिश चर्च में यह स्थिति 1907 तक बनी रही। कुछ जातियों में स्थानीय बहिर्विवाह का नियम प्रचलित है। इसका यह अर्थ है कि एक गाँव या खेड़े में रहने वाले नर-नारी का विवाह अर्जित है। छोटा नागपुर के ओरावों में एक ही ग्राम के निवासी युवक युवती का विवाह निषिद्ध माना जाता है, क्योंकि सामान्य रूप से यह माना जाता है कि ऐसा विवाह वर अथवा वधू के लिए अथवा दोनों के लिए अमंगल लाने वाला होता है।

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