व्यक्ति के जीवन की आकांक्षा
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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक संबंध उसकी एक आवश्यकता है। सामूहिकता की प्रवृत्ति प्रत्येक मानव में जन्मजात होती है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पारस्परिक जागरूकता बहुत आवश्यक होती है। इसके लिए मनुष्य कुछ औपचारिक व कुछ अनौपचारिक संबंधों में बंध जाता है। धीरे-धीरे संबंधों में अपेक्षाएं बढ़ने लगती हैं। जब अपेक्षाओं की कसौटी पर कोई संबंध खरा नहीं उतर पाता तो संबंधों में विकृति और विघटनकारी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे क्त्रोध, घृणा, प्रतिशोध की भावना जन्म लेती है। इसलिए संबंधों में अपेक्षा और आकांक्षाओं को अपने ऊपर हावी न होने दें। आकांक्षाओं के संसार से बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए। आकांक्षा इसलिए है कि हमें अपनी वर्तमान स्थिति से असंतोष है, अतृप्ति है। आकांक्षा तो मृग-तृष्णा है, जो अपने पास है, उससे और ज्यादा पाने की अभिलाषा चाहे वह संपत्ति हो, पद या भवन। कुछ और पाने की दौड़ आकांक्षा है। यह सब नश्वर है इसकी प्राप्ति के लिए दूसरों से अपेक्षा करना, पूरा न होने पर संबंधों में कड़वाहट भरना कहां की समझदारी है? क्या उक्त वस्तुएं हम अपने साथ ले जा सकेंगे?
आकांक्षा का जिसने सहारा पकड़ा वह सपनों में खो गया। उसने अपने सपनों का संसार निर्मित कर लिया, लेकिन सत्य उससे कभी निकला नहीं। वह रेत की तरह है, उससे तेल निकल नहीं सकता। जिस दिन आकांक्षा की निरर्थकता समझ आ गई, मौत का भय हृदय से निकल जाएगा। इसी क्षण जीवन में एक नई ऊर्जा का आर्विभाव हो जाएगा, इस नई ऊर्जा को हम कहते हैं निष्कांक्षा जो जीवन का परिचय शाश्वत सत्य से कराने में सक्षम है। आकांक्षाएं लेकर हम संसार में ही दौड़ रहे हैं, भ्रमित हैं। आत्म-बोध से वंचित हैं। आकांक्षा की चट्टान ने उस प्रकाश पुंज की किरणों से वंचित कर रखा है। हटा दो चट्टान, प्रकाश में अपनी आत्मा का साक्षात करो और परम सत्ता में लीन हो जाओ, जिसका तुम अंश हो।