Varsha Rutu aur Manav Jivan ke bich ka sambandh spasht kijiye
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मौसम उन वस्तुओं में से है जिन्हें हमें सहन करना ही पड़ता है। हम कहीं भी रहते हों-पृथ्वी की सतह पर ही नहीं, उसके गर्भ में अथवा अंतरिक्ष में भी- मौसम के प्रभाव से बच नहीं सकते। अपने जन्म से लेकर मुत्यु तक हमें उसके साथ ही रहना पड़ता है। हम उसमें किंचित मात्र भी परिवर्तन नहीं कर सकते। हम उससे प्रेम करें अथवा घृणा उसे झेलने के अतिरिक्त हमारे पास अन्य कोई चारा नहीं होता। साथ ही हम उससे हमेशा प्रभावित होते रहते हैं। यदि सुबह उठते ही हमें आकाश स्वच्छ और नीला दिखाई देता है, उस समय न तो अधिक गर्मी होती है और न ही सर्दी, मंद बयार बह रही होती है तब हमारा मन अपने–आप प्रसन्न हो उठता है। हम अपनी परेशानियों को भूलने लगते हैं और शारीरिक व्याधियों की पीड़ा में कमी महसूस करने लगते हैं। इसके विपरीत अगर सुबह ही सुबह बहुत तेज बारिश हो रही हो, आंधी बह रही हो, बहुत ठंडी हवा चल रही हो या हवा एकदम बंद हो, तब अनायास ही हम छोटी-छोटी बातों पर भी झल्ला उठते हैं। हमें हर बात पर खीझ आने लगती है। किसी भी काम में हमारा मन नहीं लगता।
इसी प्रकार अगर दिन में तेज बारिश हो रही है अथवा तेज आंधी चल रही है तब हमें अपने कार्यों को किसी ‘बेहतर दिन’ के लिए टालना पड़ सकता है। अगर हमें किसी जरूरी काम की वजह से बाहर निकलना ही पड़ता है। तब पूरी तैयारी के बावजूद भी हमें काफी मुश्किल का सामना करना पड़ जाता है। इसी प्रकार ठंडी रात अथवा तेज गर्म दोपहरी में भी हम, जहां तक हो सकता है, घर से बाहर कदम नहीं रखना चाहते। इसके विपरीत सुहाने मौसम में, वसंती रात में जब न ज्यादा गर्मी होती है और न ही अधिक सर्दी, लोग काफी देर तक बाहर घूमते रहते हैं। सर्दी के दिनों में, सुनहरी धूप में, लोग घंटों पार्क में बैठे रहते हैं या टहलते रहते हैं। सुहाने मौसम में कवि और लेखक तो झूम ही उठते हैं- उनके मस्तिष्क में अनायास ही उद्गार पैदा होने लगते हैं और उनकी लेखनी चलने के लिए मचल उठती है- आम आदमी भी, जो उन जैसा भावुक और संवेदनशील नहीं होता, मस्त हो जाता है। आज तक कोई भी ऐसा कवि नहीं हुआ जिसने चिलचिलाती धूप में अथवा गर्म और उमस भरी शाम को या ठिठुरती सर्द रात में श्रृंगार रस की कविता लिखी हो। ये मौसम उसके अच्छे-भले मूड को भी एकदम चौपट कर देते हैं।
वर्षा ऋतु में, विशेष रूप से आषाढ़-श्रावण के महीनों में (जुलाई-अगस्त के महीनों में), जब वातावरण का ताप 250 सै. या अधिक हो जाता है और वायु में नमी की मात्रा काफी अधिक (आपेक्षिक आर्द्रता 50 प्रतिशत से अधिक) हो जाती है, तब हम बेचैनी महसूस करने लगते हैं। जैसे-जैसे ताप और आर्द्रता बढ़ती जाती है, बेचैन हो उठने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ने लगती है। ताप के 320 सैं. से ऊपर हो जाने पर तो शारीरिक व्याधियां भी आरम्भ हो जाती हैं।
मौसम हमारे शरीर, मन और भावनाओं, सबको, प्रभावित करता है। भीषण गर्मी के बाद जब एकाएक वर्षा होने लगती है तब वायुमंडल का ताप भी तेजी से गिर जाता है। ताप के इस अचानक गिर जाने के प्रभाव हमारे शरीर पर भी पड़ते हैं। कुछ लोग, विशेष रूप से बच्चे, बूढ़े और शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति, इस प्रभाव के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। वे जुकाम, बुखार, निमोनिया आदि के शिकार हो जाते हैं।
इसी प्रकार वर्षा ऋतु के बाद आश्विन और कार्तिक के महीनों में जब दिन में ताप काफी अधिक रहता है पर रात ठंडी होने लगती हैं, ज्वर फैलने हेतु लगभग ‘आदर्श स्थिति’ उत्पन्न हो जाती है।
सर्दी की ऋतु में जब हिमालयी क्षेत्र में जोरदार हिमपात हो जाता है उस समय “बर्फ पड़े शिमला में सर्दी दिल्ली में बढ़ जाए” कहावत के अनुसार न केवल दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्र में वरन् पूरे उत्तर भारत में शीत लहर आ जाती है और इस लहर के साथ ही आ जाती हैं ज्वर और निमोनिया की लहर।
ऐसा हमारे देश के विभिन्न भागों में ही नहीं वरन् संसार के अनेक क्षेत्रों में होता हैं। आमतौर से गर्म जलवायु वाले मध्य अमेरिकी पठार में ‘नॉर्थर’ (उत्तरी ठंडी पवन) के अचानक आ जाने से अनेक लोगों को घातक निमोनिया हो जाता है। उत्तर अमेरिका के समशीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र के आरंभिक वसंत का पल-पल परिवर्तनशील मौसम, लोगों का सिरदर्द बन जाता है।
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