Hindi, asked by trisha582, 1 year ago

vartamaan samay mein guru shishya ke sambandh par nibandh likhein (in hindi)

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Answered by ranialisha128
19
विद्यार्थी और शिष्य

        गुरु एवं शिक्षक में अंतर है, उसी प्रकार शिष्य और विद्यार्थी में भी भिन्नता है । शिक्षक को उनका शुल्क देने पर विद्यार्थी एवं शिक्षक का हिसाब पूर्ण होता है; जबकि गुरु आत्मज्ञान देते हैं । इसलिए गुरु के लिए कुछ भी और जितना भी किया जाए कम ही है । बचपन में माता-पिता हमारे लिए सब कुछ करते हैं, उसके बदले में हम उनके लिए जितना करें, कम ही है; उसी समान गुरु-शिष्य का संबंध है ।

        विद्यार्थी का अर्थ है छात्र । छात्र शब्द की व्युत्पत्ति है,

        ‘छत्रं गुरोर्दोषाणामावरणं तच्छीलमस्येति ।’

अर्थ : छत्र अर्थात गुरु के (शिक्षक के) दोष पर आवरण डालना, ऐसा जिसका शील है, वह छात्र है ।’ (शब्दकल्पद्रुम)।

        इसके विपरीत, शिष्य को ऐसा कभी लगता ही नहीं कि गुरु में कुछ दोष हैं ।

गुरु-शिष्य संबंध

. इस संसार में केवल गुरु-शिष्य का नाता ही पवित्र माना गया है । यही एक नाता खरा है । गुरु-शिष्य के संबंध केवल आध्यात्मिक स्वरूप के होते हैं । शिष्य को ‘मेरा उद्धार हो’, यही एक भान होना चाहिए । गुरु को एक ही भान रहता है कि ‘इसका उद्धार होना चाहिए ।’ गुरु-शिष्य का नाता आयु पर नहीं, अपितु ज्ञानवृद्धि और साधनावृद्धि पर आधारित होता है । जीवसृष्टि के सर्व प्राणि ज्ञान और साधना के माध्यम से अभिवृद्धि साध्य करते हैं । शेष समस्त नाते भय अथवा सामाजिक बंधनों के कारण उत्पन्न होते हैं; इसलिए उनके व्यवहार भी सीमित होते हैं और उन नातों में अहं (‘मैं’ पन) रहता ही है । उन नातों में ज्ञान और साधना का मूल्य शून्य होता है । ‘मैं’ पन के कारण ही वे नाते टिके रहते हैं । अहंभाव कायम रखनेवाले सर्व नाते असत्य (अर्थात मायाजनित) होते हैं ।

. गुरु एवं शिष्य में भिन्नता देखना निम्न स्तर का लक्षण है । वास्तव में नारायण चराचर सृष्टि में विद्यमान हैं, अतः प्रत्येक प्राणि का स्वरूप स्वयं समान ही है । रस्सी यदि सर्प प्रतीत होगी, तो भय रहेगा ।

        तुकाराम महाराज कहते हैं, यदि सबकुछ ब्रह्म है, नारायण है, तब गुरुत्व एवं शिष्यत्व का झमेला क्यों ? यदि सर्व ब्रह्म है, तो क्या शिष्य उससे अलग है ? जब तक यह समझ में नहीं आता कि अमुक जगह पर पडी हुई रस्सी, रस्सी ही है, तब तक ‘वहां सर्प है’ इस समझ के कारण भय लगता रहेगा ।

        यह समस्त गुरु-शिष्यभाव निमित्तकारण ही है । मिथ्यत्व के कारण वह अनुग्रह होने के क्षण तक ही सत्य प्रतीत होता है । गुरु का अनुग्रह प्राप्त कर लेने पर जब शिष्य पूछता है, ‘अब कितने दिनों में मैं मुक्त हो जाऊंगा’, तब गुरु उत्तर देते हैं, ‘‘जिस क्षण तुझे अनुग्रह दिया, उसी क्षण तू मुक्त हो गया । मुझ पर विश्वास न हो, तो उसकी अनुभूति के लिए तू भक्ति कर; विश्वास हो तो भक्ति की आवश्यकता ही नहीं ।’’



ranialisha128: if this answer is correct plz mark us branliest
ranialisha128: delhi
Answered by ishaandebnahak
5

Answer:

विद्यार्थी और शिष्य

       गुरु एवं शिक्षक में अंतर है, उसी प्रकार शिष्य और विद्यार्थी में भी भिन्नता है । शिक्षक को उनका शुल्क देने पर विद्यार्थी एवं शिक्षक का हिसाब पूर्ण होता है; जबकि गुरु आत्मज्ञान देते हैं । इसलिए गुरु के लिए कुछ भी और जितना भी किया जाए कम ही है । बचपन में माता-पिता हमारे लिए सब कुछ करते हैं, उसके बदले में हम उनके लिए जितना करें, कम ही है; उसी समान गुरु-शिष्य का संबंध है ।

        विद्यार्थी का अर्थ है छात्र । छात्र शब्द की व्युत्पत्ति है,

        ‘छत्रं गुरोर्दोषाणामावरणं तच्छीलमस्येति ।’

अर्थ : छत्र अर्थात गुरु के (शिक्षक के) दोष पर आवरण डालना, ऐसा जिसका शील है, वह छात्र है ।’ (शब्दकल्पद्रुम)।

        इसके विपरीत, शिष्य को ऐसा कभी लगता ही नहीं कि गुरु में कुछ दोष हैं ।

गुरु-शिष्य संबंध

अ. इस संसार में केवल गुरु-शिष्य का नाता ही पवित्र माना गया है । यही एक नाता खरा है । गुरु-शिष्य के संबंध केवल आध्यात्मिक स्वरूप के होते हैं । शिष्य को ‘मेरा उद्धार हो’, यही एक भान होना चाहिए । गुरु को एक ही भान रहता है कि ‘इसका उद्धार होना चाहिए ।’ गुरु-शिष्य का नाता आयु पर नहीं, अपितु ज्ञानवृद्धि और साधनावृद्धि पर आधारित होता है । जीवसृष्टि के सर्व प्राणि ज्ञान और साधना के माध्यम से अभिवृद्धि साध्य करते हैं । शेष समस्त नाते भय अथवा सामाजिक बंधनों के कारण उत्पन्न होते हैं; इसलिए उनके व्यवहार भी सीमित होते हैं और उन नातों में अहं (‘मैं’ पन) रहता ही है । उन नातों में ज्ञान और साधना का मूल्य शून्य होता है । ‘मैं’ पन के कारण ही वे नाते टिके रहते हैं । अहंभाव कायम रखनेवाले सर्व नाते असत्य (अर्थात मायाजनित) होते हैं ।

आ. गुरु एवं शिष्य में भिन्नता देखना निम्न स्तर का लक्षण है । वास्तव में नारायण चराचर सृष्टि में विद्यमान हैं, अतः प्रत्येक प्राणि का स्वरूप स्वयं समान ही है । रस्सी यदि सर्प प्रतीत होगी, तो भय रहेगा ।

        तुकाराम महाराज कहते हैं, यदि सबकुछ ब्रह्म है, नारायण है, तब गुरुत्व एवं शिष्यत्व का झमेला क्यों ? यदि सर्व ब्रह्म है, तो क्या शिष्य उससे अलग है ? जब तक यह समझ में नहीं आता कि अमुक जगह पर पडी हुई रस्सी, रस्सी ही है, तब तक ‘वहां सर्प है’ इस समझ के कारण भय लगता रहेगा ।

        यह समस्त गुरु-शिष्यभाव निमित्तकारण ही है । मिथ्यत्व के कारण वह अनुग्रह होने के क्षण तक ही सत्य प्रतीत होता है । गुरु का अनुग्रह प्राप्त कर लेने पर जब शिष्य पूछता है, ‘अब कितने दिनों में मैं मुक्त हो जाऊंगा’, तब गुरु उत्तर देते हैं, ‘‘जिस क्षण तुझे अनुग्रह दिया, उसी क्षण तू मुक्त हो गया । मुझ पर विश्वास न हो, तो उसकी अनुभूति के लिए तू भक्ति कर; विश्वास हो तो भक्ति की आवश्यकता ही नहीं ।’’

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