vidhwa jivan ek abhishap
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"जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है, मरो तो ऐसे मरो जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं। "
मित्रों, पिछले कई रातों से मैं एक पुरानी मूवी "बहु-बेटी" देखना चाहता था। न जाने इस पुरानी मूवी में ऐसा क्या था जिसकी कशिश मुझे अपनी और खीच रही थी। वैसे मुझे पुरानी ब्लैक एंड वाइट मूवीज का शौक पहले से ही है। अशोक कुमार, माला सिन्हा, जॉय मुखर्जी, महमूद एवं मुमताज़ जैसे दिग्गज कलाकारों के द्वारा अभिनीत यह मूवी १९६५ में रिलीज़ हुई थी। यह वह दौर था जब आजादी के पश्चात समाज में फैले अंधविश्वासों और परंपरा के नाम पर चल रहे अनेक कुरीतियों के खिलाफ भारत वर्ष में कई आंदोलन बुलंद हो रहे थे। नौजवानों के मन में आजादी के बरसों के संघर्ष के बाद राष्ट्र निर्माण की बड़ी चुनौती हिलोरें ले रही थी। अंग्रेज़ों के साथ संघर्ष के उपरान्त नौजवानो की अगली मंज़िल थी सामाज में फैली बुराइओं को दूर करने की। उस दौर में बाल विवाह का चलन काफी ज्यादा था। विधवा विवाह को तब समाज में बहुत बुरी नज़र से देखा जाता था।
यह मूवी विधवा विवाह की पृष्टभूमि में ही बनी थी। यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसकी शादी करीब १६ वर्ष की आयु में एक फौजी लड़के से कर दी जाती है। उस जमाने में लड़की की उसकी शादी के वक़्त उसकी मर्ज़ी शायद ही पूछी जाती थी। लड़की को एक गाय के सामान माना जाता था जिसे जिस भी खूटे से बाँध दिया जाता था, वह उसी खूटे के साथ हमेशा हमेशा के लिए बंध जाती थी। लड़की के पिता के द्वारा लड़की के कन्यादान करने के बाद, उसके पिता का सारा अधिकार उस पर से खत्म हो जाता था और यह सारे अधिकार लड़की के ससुराल वालों को मिल जाते थे। चाहे ससुराल में वह जिस भी परिस्थिति में हो, उसकी अर्थी उठने तक उसे हर हाल में उसी घर में रहना होता था। सास- ससुर, पति और उसके परिवार के अन्य लोगों का ख्याल रखना उसका परम कर्त्तव्य था। देश की आधी आबादी से ज्यादा अशिक्षित थी। और उस दौर में लड़कियों का शिक्षित होना बहुत बड़ी बात थी। समाज को बुरी तरह से जकड़े अंधविश्वासों और परंपरागत ओछी मान्यताओं के पीछे का सबसे बड़ा कारण भी यह अशिक्षा ही थी।
मूवी के कहानी के अनुसार शादी के तुरत बाद सुहागरात के दिन ही उस फौजी लड़के को उसकी यूनिट द्वारा रात को टेलीग्राम दे कर किसी अपरिहार्य कारणवश उसकी छुट्टियां रद्द करते हुए उसे ड्यूटी पर तुरंत रिपोर्ट करने का निर्देश दिया जाता है। अपनी नयी नवेली दुल्हन को अपने घर छोड़ वह अपने ड्यूटी के लिए रवाना हो जाता है। फिर ड्यूटी पर उसकी शादी के तुरंत बाद भी देश सेवा के लिए उसकी कर्त्तव्यपरायणता से खुश हो कर उसे १५ दिन की छुटटी दी जाती है। मगर किस्मत के बेरहम हाथ, उसके अपने घर लौटते वक़्त उसकी मोटर साइकिल का एक्सीडेंट होता है और वहीं उसकी मौत हो जाती है। मौत की खबर पाते ही लड़के के माँ बाप के ऊपर एक पहाड़ टूट पड़ता है। बहु विधवा हो जाती है और परंपरा के अनुसार एक दिन भी अपने पति के साथ सुहागरात तक न मना पाने वाली एक १६ वर्षीय लड़की को सफ़ेद साडी में लिपटा कर उसे सारी उम्र एक बंजर सी जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया जाता है। उसके ससुर रिटायर्ड जज काफी सुलझे हुए एवं सामाजिक सुधारों के पक्षधर थे। उन्हें इतने कम उम्र की बच्ची का इस तरह से जीवन जीना मंज़ूर न हुआ। उन्होंने उसकी जीवन में खुशियों के प्रवेश के लिए उसे आगे पढ़ाने का निर्णय लिया। कॉलेज में उसके एक सहपाठी पुरुष को उसके विधवा होने की जानकारी होने के बावजूद भी उससे प्रेम हो जाता है और वह उससे शादी करना चाहता है। लड़के की सोच और उसकी अच्छाई उसे प्रभावित करती है। उसे ऐसा लगता है कि वह उस लड़के के साथ काफी खुश रहेगी किन्तु परंपरागत सोच, रीति - रिवाजों और समाज के दबाव की वजह से इस प्रस्ताव को वह अपने दिल से पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाती है। बुजुर्ग सास - ससुर की सेवा वह अपना परम कर्त्तव्य मानती है और वह इसके लिए अपने मन में उठे प्रेम का गला घोटने को तैयार हो जाती है। उसके ससुर को इस बात की खबर होने के बाद की वो दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं, मगर उनके इज्जत की वजह से और उसके शादी के बाद उसके सास ससुर के अकेले हो जाने के डर से वह शादी नहीं करना चाहती, वह समाज की इस कुरीति से पंगा लेने का ठान लेते हैं। चौतरफा विरोध के बावजूद, जिस विरोध में लड़की की सास और लड़की के पिता भी शामिल हो जाते हैं, जज साहब पीछे नहीं हटते और तमाम विरोधों के बावजूद दोनों की शादी मंदिर में करवाते हैं।
मित्रों, तब के दौर में और आज के दौर में यद्यपि काफी अंतर आ गया है, मगर आज भी विधवाओं का जीवन अनेक कष्ट से भरा है। भले ही आज विधवाओं को उस तरह के कष्ट और कठोर जीवन के दौर से नहीं गुजरना पड़ता, फिर भी कम उम्र में विधवा हुई लडकियां समाज में तिरस्कार, बुरी नज़र व एक लम्बी नीरस जीवन जीने को मज़बूर हैं। शिक्षा के प्रसार के साथ उनकी सोच में थोडा परिवर्तन जरूर आया है। किन्तु जरूरत है आज के युवाओं को आगे बढ़ कर ऐसी युवतियों का हाथ थामने की और उन्हें जीवन की नयी शुरआत करने का अवसर प्रदान करने की। विधवा विवाह आज भी हमारे समाज में इतना कॉमन नहीं है। अभी भी कई लोग ऐसा मानते हैं कि पति के मौत के पीछे पत्नी का बुरा भाग्य होता है। और अगर उस लड़की का विवाह किसी अन्य लड़के से हुआ तो उस लड़के का भी वही अंज़ाम होगा। ऐसे अंधविश्वास को तोड़ कर आज के युवाओं को समाज में एक नयी चेतना की जागृति करनी है। यदि आप अपने देश और समाज के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो आप खुद इस अच्छे काम के सहभागी बन सकते हैं। ऐसी न जाने कितनी लडकियां एक अच्छे जीवनसाथी के तलाश में अखबारों और इंटरनेट साइट्स पर वैवाहिक विज्ञापन 'विधवा' कॉलम में देती हैं। आप अगर शादी की योग्यता रखते हैं तो आप ऐसी किसी एक लड़की के ज़िन्दगी की रौशनी बन कर समाज में एक एक्जाम्पल पेश कर सकते हैं।
मित्रों, पिछले कई रातों से मैं एक पुरानी मूवी "बहु-बेटी" देखना चाहता था। न जाने इस पुरानी मूवी में ऐसा क्या था जिसकी कशिश मुझे अपनी और खीच रही थी। वैसे मुझे पुरानी ब्लैक एंड वाइट मूवीज का शौक पहले से ही है। अशोक कुमार, माला सिन्हा, जॉय मुखर्जी, महमूद एवं मुमताज़ जैसे दिग्गज कलाकारों के द्वारा अभिनीत यह मूवी १९६५ में रिलीज़ हुई थी। यह वह दौर था जब आजादी के पश्चात समाज में फैले अंधविश्वासों और परंपरा के नाम पर चल रहे अनेक कुरीतियों के खिलाफ भारत वर्ष में कई आंदोलन बुलंद हो रहे थे। नौजवानों के मन में आजादी के बरसों के संघर्ष के बाद राष्ट्र निर्माण की बड़ी चुनौती हिलोरें ले रही थी। अंग्रेज़ों के साथ संघर्ष के उपरान्त नौजवानो की अगली मंज़िल थी सामाज में फैली बुराइओं को दूर करने की। उस दौर में बाल विवाह का चलन काफी ज्यादा था। विधवा विवाह को तब समाज में बहुत बुरी नज़र से देखा जाता था।
यह मूवी विधवा विवाह की पृष्टभूमि में ही बनी थी। यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसकी शादी करीब १६ वर्ष की आयु में एक फौजी लड़के से कर दी जाती है। उस जमाने में लड़की की उसकी शादी के वक़्त उसकी मर्ज़ी शायद ही पूछी जाती थी। लड़की को एक गाय के सामान माना जाता था जिसे जिस भी खूटे से बाँध दिया जाता था, वह उसी खूटे के साथ हमेशा हमेशा के लिए बंध जाती थी। लड़की के पिता के द्वारा लड़की के कन्यादान करने के बाद, उसके पिता का सारा अधिकार उस पर से खत्म हो जाता था और यह सारे अधिकार लड़की के ससुराल वालों को मिल जाते थे। चाहे ससुराल में वह जिस भी परिस्थिति में हो, उसकी अर्थी उठने तक उसे हर हाल में उसी घर में रहना होता था। सास- ससुर, पति और उसके परिवार के अन्य लोगों का ख्याल रखना उसका परम कर्त्तव्य था। देश की आधी आबादी से ज्यादा अशिक्षित थी। और उस दौर में लड़कियों का शिक्षित होना बहुत बड़ी बात थी। समाज को बुरी तरह से जकड़े अंधविश्वासों और परंपरागत ओछी मान्यताओं के पीछे का सबसे बड़ा कारण भी यह अशिक्षा ही थी।
मूवी के कहानी के अनुसार शादी के तुरत बाद सुहागरात के दिन ही उस फौजी लड़के को उसकी यूनिट द्वारा रात को टेलीग्राम दे कर किसी अपरिहार्य कारणवश उसकी छुट्टियां रद्द करते हुए उसे ड्यूटी पर तुरंत रिपोर्ट करने का निर्देश दिया जाता है। अपनी नयी नवेली दुल्हन को अपने घर छोड़ वह अपने ड्यूटी के लिए रवाना हो जाता है। फिर ड्यूटी पर उसकी शादी के तुरंत बाद भी देश सेवा के लिए उसकी कर्त्तव्यपरायणता से खुश हो कर उसे १५ दिन की छुटटी दी जाती है। मगर किस्मत के बेरहम हाथ, उसके अपने घर लौटते वक़्त उसकी मोटर साइकिल का एक्सीडेंट होता है और वहीं उसकी मौत हो जाती है। मौत की खबर पाते ही लड़के के माँ बाप के ऊपर एक पहाड़ टूट पड़ता है। बहु विधवा हो जाती है और परंपरा के अनुसार एक दिन भी अपने पति के साथ सुहागरात तक न मना पाने वाली एक १६ वर्षीय लड़की को सफ़ेद साडी में लिपटा कर उसे सारी उम्र एक बंजर सी जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया जाता है। उसके ससुर रिटायर्ड जज काफी सुलझे हुए एवं सामाजिक सुधारों के पक्षधर थे। उन्हें इतने कम उम्र की बच्ची का इस तरह से जीवन जीना मंज़ूर न हुआ। उन्होंने उसकी जीवन में खुशियों के प्रवेश के लिए उसे आगे पढ़ाने का निर्णय लिया। कॉलेज में उसके एक सहपाठी पुरुष को उसके विधवा होने की जानकारी होने के बावजूद भी उससे प्रेम हो जाता है और वह उससे शादी करना चाहता है। लड़के की सोच और उसकी अच्छाई उसे प्रभावित करती है। उसे ऐसा लगता है कि वह उस लड़के के साथ काफी खुश रहेगी किन्तु परंपरागत सोच, रीति - रिवाजों और समाज के दबाव की वजह से इस प्रस्ताव को वह अपने दिल से पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाती है। बुजुर्ग सास - ससुर की सेवा वह अपना परम कर्त्तव्य मानती है और वह इसके लिए अपने मन में उठे प्रेम का गला घोटने को तैयार हो जाती है। उसके ससुर को इस बात की खबर होने के बाद की वो दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं, मगर उनके इज्जत की वजह से और उसके शादी के बाद उसके सास ससुर के अकेले हो जाने के डर से वह शादी नहीं करना चाहती, वह समाज की इस कुरीति से पंगा लेने का ठान लेते हैं। चौतरफा विरोध के बावजूद, जिस विरोध में लड़की की सास और लड़की के पिता भी शामिल हो जाते हैं, जज साहब पीछे नहीं हटते और तमाम विरोधों के बावजूद दोनों की शादी मंदिर में करवाते हैं।
मित्रों, तब के दौर में और आज के दौर में यद्यपि काफी अंतर आ गया है, मगर आज भी विधवाओं का जीवन अनेक कष्ट से भरा है। भले ही आज विधवाओं को उस तरह के कष्ट और कठोर जीवन के दौर से नहीं गुजरना पड़ता, फिर भी कम उम्र में विधवा हुई लडकियां समाज में तिरस्कार, बुरी नज़र व एक लम्बी नीरस जीवन जीने को मज़बूर हैं। शिक्षा के प्रसार के साथ उनकी सोच में थोडा परिवर्तन जरूर आया है। किन्तु जरूरत है आज के युवाओं को आगे बढ़ कर ऐसी युवतियों का हाथ थामने की और उन्हें जीवन की नयी शुरआत करने का अवसर प्रदान करने की। विधवा विवाह आज भी हमारे समाज में इतना कॉमन नहीं है। अभी भी कई लोग ऐसा मानते हैं कि पति के मौत के पीछे पत्नी का बुरा भाग्य होता है। और अगर उस लड़की का विवाह किसी अन्य लड़के से हुआ तो उस लड़के का भी वही अंज़ाम होगा। ऐसे अंधविश्वास को तोड़ कर आज के युवाओं को समाज में एक नयी चेतना की जागृति करनी है। यदि आप अपने देश और समाज के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो आप खुद इस अच्छे काम के सहभागी बन सकते हैं। ऐसी न जाने कितनी लडकियां एक अच्छे जीवनसाथी के तलाश में अखबारों और इंटरनेट साइट्स पर वैवाहिक विज्ञापन 'विधवा' कॉलम में देती हैं। आप अगर शादी की योग्यता रखते हैं तो आप ऐसी किसी एक लड़की के ज़िन्दगी की रौशनी बन कर समाज में एक एक्जाम्पल पेश कर सकते हैं।
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