which learnings by the father refer to emotionless relationships? answer
Answers
Answered by
1
The father's emotionless relationship with us is when we have done something wrong and he punishes us and takes strict action.
Hope it Helps !
Kindly mark me the Brainliest !!
vevakka:
Thanks a lot
Answered by
0
हमारे यहां स्थिति अलग है। अभिभावक बच्चों की परवरिश यानी पेरेंटिंग को पिछले दो दशक से गंभीरता से लेने लगे हैं। मध्य वर्ग के अभिभावक आज भी अपने बच्चे की पैदाइश से ले कर उसके वयस्क होने तक उसकी हर उपलब्धियों पर अभिभूत रहते हैं।
माता-पिता की कोशिश रहती है कि वे अपने बच्चों को हर वो चीज मुहैया करवाएं, जो उन्हें हासिल नहीं हुई। चाहे वह अच्छे स्कूल में पढ़ाई हो, या वीडियो गेम्स, आलीशान बर्थडे पार्टी हो या विदेश की सैर। बच्चों को बिना मांगे बहुत कुछ मिल रहा है और बिना चाहे मिल रहा है अंधाधुंध प्रतियोगिता, माता-पिता की बढ़ती अपेक्षाएं और अपने आप को साबित करने का दबाव।
यही वजह है कि बाल मनोचिकित्सक डॉक्टर उमा बनर्जी कहती हैं, ‘आजकल के माता-पिता और बच्चों के बीच का व्यवहार मुझे असामान्य सा लगता है। माता-पिता अपने बच्चे को भगवान सा दर्जा दे कर उन्हें सिर पर बिठा कर रखते हैं। यही बच्चे जब अपनी मनमानी करने लगते हैं, तो माता-पिता हमारे पास आते हैं अपनी समस्या लेकर।’
आज के अभिभावक अपने समय में बिलकुल अलग जिंदगी जीते थे। संयुक्त परिवार। कई बच्चों की भीड़ में पल रहा बच्चा। समय पर खाना मिल जाता था और डांट भी। मां की भूमिका मूलत: घर संभालने की ही होती थी। बच्चों की परवरिश में उनका दखल न के बराबर रहता था। उस समय के अधिकांश पिता अपने बच्चों के साथ एक दूरी बना कर चलते थे। घर में एक अनुशासन बना रहता था। बच्चे अपनी रोजमर्रा की दिक्कतें या उलझनें अपने दोस्तों या अपने हमउम्र बच्चों से बांटते।
माता-पिता और बच्चों के बीच एक अनकही सी दूरी आज के समय में एकदम मिट गई है। आज के दौर के माता-पिता अपने आपको बच्चों का दोस्त कहलवाना पसंद करते हैं। वे चाहते हैं कि बच्चे हर बात उनसे शेअर करें, उनके बीच किसी किस्म की दूरी न रहे।
बच्चों और माता-पिता के बीच दोस्ताना रिश्ते अगर एक दायरे में रहे, तो संबंधों में दरार नहीं आती। लेकिन ऐसा नहीं होता। बच्चे कब हद पार कर जाते हैं, इस बात का अभिभावकों को पता ही नहीं चलता।
डॉक्टर उमा बनर्जी के पास बारह साल के अक्षय के माता-पिता लगभग रोते हुए आए थे। अक्षय राजधानी के एक नामी स्कूल में सातवीं में पढ़ता है। एकलौता बच्चा। शुरू से उसकी हर जरूरत पूरी की। अक्षय के पिता राजीव बिजनेसमैन हैं। बेटे के कहने पर उन्होंने बड़ी गाड़ी ली, प्लास्मा टीवी लिया। इस साल छठी में कम नंबर आने पर जब मां ने अक्षय को डांटा, तो उसने एकदम से मां पर हाथ उठा दिया। यह पहली बार नहीं है कि अक्षय ने मां या पिता पर हाथ उठाया हो। इससे पहले वह सिनेमा न ले जाने पर, पिज्जा न खिलाने पर ऐसा किया करता था। पर पहली बार विधि के डांटने पर उसने मां को अपशब्द कहा और मारा।
उमा कहती हैं कि विधि और राजीव की तरह महीने में कम से कम पंद्रह अभिभावक उनके पास बच्चे के उद्दंड होने या मारपीट करने की समस्या ले कर आते हैं। उमा का मानना है कि जिस दिन पहली बार बच्चा माता-पिता पर हाथ उठाए, उसे रोकना बहुत जरूरी है। चाहे वह जिद खाने-पीने जैसी मामूली चीज के लिए क्यों न हो।
‘बच्चे का दोस्त बनने के लिए उनकी हर जिद पूरी करना जरूरी नहीं है। बल्कि शुरू से उन्हें सही मूल्य और संस्कार देना चाहिए। उन्हें तर्क के साथ बताएं कि बड़ों के साथ मार-पीट या डांट फटकार क्यों गलत है। बच्चों को सेंसिटिव बनाना स्कूल का नहीं, माता-पिता का दायित्व है। अगर शुरू से उन्हें पैसे से कोई चीज ले दे कर बहलाया जाएगा, तो मानवीय मूल्यों की इज्जत नहीं कर पाएंगे
माता-पिता की कोशिश रहती है कि वे अपने बच्चों को हर वो चीज मुहैया करवाएं, जो उन्हें हासिल नहीं हुई। चाहे वह अच्छे स्कूल में पढ़ाई हो, या वीडियो गेम्स, आलीशान बर्थडे पार्टी हो या विदेश की सैर। बच्चों को बिना मांगे बहुत कुछ मिल रहा है और बिना चाहे मिल रहा है अंधाधुंध प्रतियोगिता, माता-पिता की बढ़ती अपेक्षाएं और अपने आप को साबित करने का दबाव।
यही वजह है कि बाल मनोचिकित्सक डॉक्टर उमा बनर्जी कहती हैं, ‘आजकल के माता-पिता और बच्चों के बीच का व्यवहार मुझे असामान्य सा लगता है। माता-पिता अपने बच्चे को भगवान सा दर्जा दे कर उन्हें सिर पर बिठा कर रखते हैं। यही बच्चे जब अपनी मनमानी करने लगते हैं, तो माता-पिता हमारे पास आते हैं अपनी समस्या लेकर।’
आज के अभिभावक अपने समय में बिलकुल अलग जिंदगी जीते थे। संयुक्त परिवार। कई बच्चों की भीड़ में पल रहा बच्चा। समय पर खाना मिल जाता था और डांट भी। मां की भूमिका मूलत: घर संभालने की ही होती थी। बच्चों की परवरिश में उनका दखल न के बराबर रहता था। उस समय के अधिकांश पिता अपने बच्चों के साथ एक दूरी बना कर चलते थे। घर में एक अनुशासन बना रहता था। बच्चे अपनी रोजमर्रा की दिक्कतें या उलझनें अपने दोस्तों या अपने हमउम्र बच्चों से बांटते।
माता-पिता और बच्चों के बीच एक अनकही सी दूरी आज के समय में एकदम मिट गई है। आज के दौर के माता-पिता अपने आपको बच्चों का दोस्त कहलवाना पसंद करते हैं। वे चाहते हैं कि बच्चे हर बात उनसे शेअर करें, उनके बीच किसी किस्म की दूरी न रहे।
बच्चों और माता-पिता के बीच दोस्ताना रिश्ते अगर एक दायरे में रहे, तो संबंधों में दरार नहीं आती। लेकिन ऐसा नहीं होता। बच्चे कब हद पार कर जाते हैं, इस बात का अभिभावकों को पता ही नहीं चलता।
डॉक्टर उमा बनर्जी के पास बारह साल के अक्षय के माता-पिता लगभग रोते हुए आए थे। अक्षय राजधानी के एक नामी स्कूल में सातवीं में पढ़ता है। एकलौता बच्चा। शुरू से उसकी हर जरूरत पूरी की। अक्षय के पिता राजीव बिजनेसमैन हैं। बेटे के कहने पर उन्होंने बड़ी गाड़ी ली, प्लास्मा टीवी लिया। इस साल छठी में कम नंबर आने पर जब मां ने अक्षय को डांटा, तो उसने एकदम से मां पर हाथ उठा दिया। यह पहली बार नहीं है कि अक्षय ने मां या पिता पर हाथ उठाया हो। इससे पहले वह सिनेमा न ले जाने पर, पिज्जा न खिलाने पर ऐसा किया करता था। पर पहली बार विधि के डांटने पर उसने मां को अपशब्द कहा और मारा।
उमा कहती हैं कि विधि और राजीव की तरह महीने में कम से कम पंद्रह अभिभावक उनके पास बच्चे के उद्दंड होने या मारपीट करने की समस्या ले कर आते हैं। उमा का मानना है कि जिस दिन पहली बार बच्चा माता-पिता पर हाथ उठाए, उसे रोकना बहुत जरूरी है। चाहे वह जिद खाने-पीने जैसी मामूली चीज के लिए क्यों न हो।
‘बच्चे का दोस्त बनने के लिए उनकी हर जिद पूरी करना जरूरी नहीं है। बल्कि शुरू से उन्हें सही मूल्य और संस्कार देना चाहिए। उन्हें तर्क के साथ बताएं कि बड़ों के साथ मार-पीट या डांट फटकार क्यों गलत है। बच्चों को सेंसिटिव बनाना स्कूल का नहीं, माता-पिता का दायित्व है। अगर शुरू से उन्हें पैसे से कोई चीज ले दे कर बहलाया जाएगा, तो मानवीय मूल्यों की इज्जत नहीं कर पाएंगे
Similar questions